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________________ टिप्पण : अध्ययन ४ सूत्र : १ १. आयुष्मन् ! (आउसं ! ) : इस शब्द के द्वारा शिष्य को आमन्त्रित किया गया है। जिसके आयु हो उसे आयुष्मान् कहते हैं । उसको आमन्त्रित करने का शब्द है 'आयु मन्' !' 'आ उस' शब्द द्वारा शिष्य को सम्बोधित करने की पद्धति जैन आगमों में अनेक स्थलों पर देखी जाती है । तथागत बुद्ध भी 'आमा' शब्द द्वारा ही शिष्यों को सम्बोधित करते थे । प्रश्न हो सकता है -शिष्य को आमन्त्रित करने के लिए यह शब्द ही क्यों चुना गया । इसका उत्तर है योग्य शिष्य के सब गुणों में प्रधान गुण दीर्घ-आयु ही है। जिसके दीर्घायु होती है वही पहले ज्ञान को प्राप्त कर बाद में दूसरों को दे सकता है। इस तरह शासन-परम्परा अनवच्छिन्न बनती है। 'आयुष्मन्' शब्द देश-कुल-शीलादि समस्त गुणों का सांकेतिक शब्द है । आयुष्मन् अर्थात् उतम देश, कुल, शीलादि समस्त गुण से संयुक्त दीर्घायुवाला। हरिभद्र सूरि लिखते हैं – 'प्रधान गुण निष्पन्न आमन्त्रण वचन का आशय यह है कि गुणी शिष्य को आगम-रहस्य देना चाहिए, अगुणी को नहीं। कहा है जिस प्रकार कच्चे घड़े में भरा हुआ जल उस घड़े का ही विनाश कर देता है वैसे ही गुण रहित को दिया हुआ सिद्धान्त-रहस्य उस अल्पाधार का ही विनाश कर देता है।" 'आउसं' शब्द की एक व्याख्या उपर्युक्त है । विकल्प व्याख्याओं का इस प्रकार उल्लेख मिलता है : १ - 'आउस' के बाद के 'तेण' शब्द को साथ लेकर 'आउसंतेणं' को 'भगवया' शब्द का विशेषण मानने से दूसरा अर्थ होता है मैंने सुना चिरजीवी भगवान् ने ऐसा कहा है अथवा भगवान् ने साक्षात् ऐसा कहा है। २-- 'आवसंतेणं' पाठान्त र मानने से तीसरा अर्थ होता है -- गुरुकुल में रहते हुए मैंने सुना भगवान् ने ऐसा कहा है। ३ 'आमुसतेणं' पाठान्तर मानने से अर्थ होता है --- सिर से चरणों का स्पर्श करते हुए मैंने सुना भगवान् ने ऐसा कहा है। १ जि० चू-पृ० १३० : आयुस् प्रातिपदिकं प्रथमासुः, आयुः अस्यास्ति मतुप्प्रत्ययः, आयुष्मान्! , आयुष्मन्नित्यनेन शिष्यस्यामन्त्रणं । २ - विनयपिटक १७३.१४ पृ० १२५ । ३-- जि० चू० पृ० १३०-१ : अनेन .... गुणाश्च देशकुलशीलादिका अन्वाख्याता भवंति, दीर्घायुष्कत्वं च सर्वेषां गुणानां प्रतिविशिष्टतम, कहं ?, जम्हा दिग्घायू सीसो तं नाणं अन्नेसिपि भवियाणं दाहिति, ततो य अब्वोच्छित्ती सासणस्स कया भविस्सइत्ति, तम्हा आउसंतग्गहणं कयंति । ४.--हा० टी० ५० १३७ : प्रधानगुणनिष्पन्नेनामन्त्रणवचसा गुणवते शिष्यायागमरहस्यं देयं नागुणवत इत्याह, तदनुकम्पाप्रवृत्तेरिति, उक्त च "आमे घडे निहत्तं जहा जलं तं घडं विणासेइ । इअ सिद्ध तरहस्सं अप्पाहारं विणासेइ।" ५-(क) जि० चू० पृ० १३१ : सुयं मयाऽऽयुषि समेतेन तीर्थकरेण जीवमानेन कथितं, एष द्वितीयः विकल्पः । (ख) हा० टी० ५० १३७ : 'आउसंतेणं' ति भगवत एव विशेषणम्, आयुष्मता भगवता-चिरजीविनेत्यर्थः मङ्गलवचनं चतद, __अथवा जीवता साक्षादेव । ६. (क) जि० चू० पृ० १३१ : श्रुतं मया गुरुकुलसमीपावस्थितेन तृतीयो विकल्पः । (ख) हा० टी०प० १३७ : अथवा 'आवसंतेणं' ति गुरुमूलमावसता । ७-(क) जि० चू० पृ० १३१ : सुयं मया एयमज्झयणं आउसंतेणं भगवतः पादौ आमृषता। (ख) हा० टी० ५० १३७ : अथवा 'आमुसंतेणं' आमृशता भगवत्पादारविन्दयुगलमुत्तमाङ्गन । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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