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दसवेआलियं ( दशवकालिक)
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अध्ययन ४ : श्लोक २४-२८
२४-जया जोगे निरुभित्ता
सेलेसि पडिवज्जई। तया कम्म खवित्ताणं सिद्धि गच्छइ नीरओ ॥
यदा योगान् निरुध्य शैलेशी प्रतिपद्यते। तदा कर्म क्षपयित्वा सिद्धि गच्छति नीरजाः ॥ २४ ॥
२४.- जब मनुष्य योग का निरोघ कर शैलेशी अवस्था को प्राप्त होता है तब वह कर्मों का क्षय कर रज-मुक्त बन सिद्धि को प्राप्त करता है १५६ ।
२५–जया कम्म खवित्ताणं
सिद्धि गच्छद नीरओ। तया लोगमत्थयत्थो सिद्धो हवइ सासओ॥
यदा कर्म क्षपयित्वा सिद्धि गच्छति नीरजाः। तदा लोकमस्तकस्थः सिद्धो भवति शाश्वत. ॥ २५ ॥
२५–जब मनुष्य कर्मों का क्षय कर रजमुक्त बन सिद्धि को प्राप्त होता है तब वह लोक के मस्तक पर स्थित शाश्वत सिद्ध
होता है १६ ।
२६-सुहसायगस्स समणस्स
सायाउलगस्स निगामसाइस्स। उच्छोलणापहोइस्स दुलहा सुग्गइ तारिसगस्स ॥
सुखस्वादकस्य श्रमणस्य साताकुलकस्य निकामशायिनः । उत्क्षालनाप्रधाविनः दुर्लभा सुगतिस्तादृशकस्य ॥ २६ ॥
२६-..जो श्रमण सुख का रसिक १६१, सात के लिए आकुल १६२, अकाल में सोने वाला१६3 और हाथ, पैर आदि को बारबार धोने वाला १६४ होता है उसके लिए सुगति दुर्लभ है।
२७-तवोगुणपहाणस्स
तपोगुणप्रधानस्य उज्जुमइ खंतिसंजमरयस्स। ऋजुमतेः क्षान्तिसंयमरतस्य । परीसहे जिणंतस्स
परोषहान् जयतः सुलहा सुग्गइ तारिसगस्स ॥ सुलभा सुगतिस्तादृशकस्य ॥ २७ ॥
२७ --जो श्रमण तपो-गुण से प्रधान, ऋजुमति, ६५ क्षान्ति तथा संयम में रत और परीषहाँ को १६६ जीतने वाला होता है उसके लिए सुगति सुलभ है।
[१६ पच्छा वि ते पयाया खिप्पं गच्छति अमरभवणाई। जेसि पिओ तवो संजमो य खन्ती य बम्भचेरं च ॥]
[पश्चादपि ते प्रयाताः क्षिप्रं गच्छन्ति अमरभवनानि । येषां प्रियं तपः संयमश्च क्षान्तिश्च ब्रह्मचर्य च ॥]
[जिन्हें तप, संयम, क्षमा, और ब्रह्मचर्य प्रिय हैं वे शीघ्र ही स्वर्ग को प्राप्त होते . हैं-- भले ही वे पिछली अवस्था में प्रव्रजित हुए हों ।]
२८–इच्चेय छज्जीवणियं
सम्मद्दिठी सया जए। दुलहं लभित्तु सामण्णं कम्मुणा न विराहेज्जासि ॥
त्ति बेमि ॥
इत्येतां षड्जीवनिका सम्यग-दृष्टिः सदा यतः । दुर्लभं लब्ध्वा श्रामण्यं कर्मणा न विराधयेत् ॥ २८ ॥
२८-दुर्लभ श्रमण-भाव को प्राप्त कर सम्यक-दृष्टि६८ और सतत सावधान श्रमण इस षड्जीवनिका की कर्मणा१६६ -- मन, वचन और काया से—विराधना१७० न करे ।
इति ब्रवीमि।
ऐसा मैं कहता हूँ।
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