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________________ ११७ अध्ययन ४: सूत्र १७-२३ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १७-जया निविदए भोए जे दिव्वे जे य माणुसे। तया चयइ संजोगं सभितरबाहिरं ॥ यदा निविन्ते भोगान् यान् दिव्यान् याँश्च मानुषान् । तदा त्यजति संयोगं साभ्यन्तर-बाह्यम् ।। १७ ।। १७-~-जब मनुष्य दैविक और मानुषिक भोगों से विरक्त हो जाता है तब वह आभ्यन्तर और बाह्य संयोगों को त्याग देता है१५२ । १५-जया चयइ संजोगं सभितरबाहिरं । तया मुंडे भवित्ताणं पव्वइए अणगारियं ॥ यदा त्यजति संयोग साभ्यन्तर-बाह्यम्। तदा मुण्डो भूत्वा प्रव्रजत्यनगारताम् ॥ १८॥ १८-जब मनुष्य आभ्यन्तर और बाह्य संयोगों को त्याग देता है तब वह मुंड होकर अनगार-वृत्ति को स्वीकार करता है१५३ । १६-जया मंडे भवित्ताणं पव्वइए अणगारियं । तया संवरमुक्किट्ठ धम्म फासे अणुत्तरं ॥ यदा मुण्डो भूत्वा प्रव्रजत्यनगारताम् । तदा संवरमुत्कृष्टं धर्म स्पृशत्यनुत्तरम् ॥ १६ ॥ १६-जब मनुष्य मुंड होकर अनगारवृत्ति को स्वीकार करता है तब वह उत्कृष्ट संवरात्मक अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता २०-जया संवरमुक्किट्ठ धम्म फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरय अबोहिकलुसं कडं ॥ यदा संवरमुत्कृष्ट धर्म स्पृशत्यनुत्तरम् । तदा धुनाति कर्मरजः अबोधि-कलुष-कृतम् ॥ २०॥ २० - जब मनुष्य उत्कृष्ट संवरात्मक अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है तब वह अबोधि-रूप पाप द्वारा संचित कर्म-रज को प्रकम्पित कर देता है१५५ । २१–जया धुणइ कम्मरय अबोहिकलुसं कड । तया सव्वत्तगं नाणं दसणं चाभिगच्छई ॥ यदा धुनाति कर्मरजः अबोधि-कलुष-कृतम् । तदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाभिगच्छति ॥ २१ ॥ २१-जब मनुष्य अबोधि-रूप पाप द्वारा संचित कर्म-रज को प्रकम्पित कर देता है तब वह सर्वत्र-गामी ज्ञान और दर्शनकेवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है१५६ । २२–जया सव्यत्तगं नाणं दसणं चाभिगच्छई। तया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली ॥ यदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाभिगच्छति । तदा लोकमलोकं च जिनो जानाति केवली ॥ २२॥ २२---जब मनुष्य सर्वत्र-गामी ज्ञान और दर्शन-केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है तब वह जिन और केवली होकर लोक-अलोक को जान लेता २३-जया लोगमलोग च जिणो जाणइ केवली। तया जोगे निलंभित्ता सेलेसि पडिवज्जई ॥ यदा लोकमलोकं च जिनो जानाति केवली। तदा योगान् निरुध्य शैलेशी प्रतिपद्यते ॥ २३॥ २३-जब मनुष्य जिन और केवली होकर लोक-अलोक को जान लेता है तब वह योगों का निरोध कर शैलेशी अवस्था को प्राप्त होता है१५८ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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