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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १२० अध्ययन ४ : सूत्र १ टि० २-३ २. उन भगवान् ने ( तेणं भगवया ) ! 'भग' शब्द का प्रयोग ऐश्वर्य, रूप, यश, श्री, धर्म और प्रयत्न- इन छह अर्थों में होता है । कहा है : ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग तीगना ।। जिसके ऐश्वर्य आदि होते हैं उसे भगवान कहते हैं। 'आयुष्मन् ! मैंने सुना उन भगवान ने इस प्रकार कहा' (सुयं मे आउरां तेणं भगवया एवमक्खायं)-- इस वाक्य के 'उन भगवान्' शब्दों को टीकाकार हरिभद्र सूरि ने महावीर का द्योतक माना है । चूर्णिकार जिनदास का भी ऐसा ही आशय है। परन्तु यह ठीक नहीं लगता। ऐसा करने से बाद के संलग्न वाक्य 'इह खलु छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महाबीरेणं कासवेणं पवेइया' की पूर्व वाक्य के साथ संगति नहीं बैठती। अत: पहले वाक्य के भगवान् शब्द को सूत्रकार के द्वारा अपने प्रज्ञापक आचार्य के लिए प्रयुक्त माना जाय तो व्याख्या का क्रम अधिक संगत हो सकता है। उत्तराध्ययन के सोलहवें और इस सूत्र के नवें अध्ययन में इसका आधार भी मिलता है। वहाँ अन्य प्रसंगों में क्रमशः निम्न पाठ मिलते हैं : १-- सुयं मे आउस तेणं भगवया एवमक्खायं । इह खलु थेरेहि भगवंतेहिं दस बम्भचेरसमाहिठाणा पन्नता (उत्त० १६.१) २–सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं । इह खलु थेरेहि भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिट्ठाणा पन्नता (दश० ९.४.१) हरिभद्र सूरि दशवकालिक सूत्र के इस स्थल की टीका में 'थे रेहि' शब्द का अर्थ स्थविर गणधर करते हैं । स्थविर की प्रज्ञप्ति को तीर्थक र के मुंह से सुनने का प्रसंग ही नहीं आता। ऐसी हालत में उक्त दोनों स्थलों में प्रयुक्त प्रथम 'भगवान्' शब्द का अर्थ महावीर अथवा तीर्थकर नहीं हो सकता । यहाँ भगवान् शब्द का प्रयोग सूत्रकार के प्रज्ञापक आचार्य के लिए हुआ है। उक्त दोनों स्थलों पर सूत्रकार ने अपने प्रज्ञापक आचार्य के लिए 'भगवान्' शब्द का एक वचनात्मक और तत्त्व-निरूपक स्थविरों के लिए उसका बहुवचनात्मक प्रयोग किया है। इससे भी यह स्पष्ट होता है कि भगवान् शब्द का दो बार होने वाला प्रयोग भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए है। इसी तरह प्रस्तुत प्रकरण में भी 'उन भगवान्' शब्दों का सम्बन्ध प्रज्ञापक आचार्य से बैठता है। वे भगवान् महावीर के द्योतक नहीं ठहरते । ३. काश्यप-गोत्री ( कासवेणं ) 'काश्यप' शब्द श्रमण भगवान महावीर के विशेषण रूप से अनेक स्थलों पर व्यवहृत मिलता है । अनेक स्थानों पर भगवान महावीर को केवल 'काश्यप' शब्द से संकेतित किया है। भगवान् महावीर काश्यप क्यों कहलाए ---इस विषय में दो कारण मिलते हैं : १-जि० चू० पृ० १३१ : भगशब्देन ऐश्वर्यरूपयश: श्रीधर्मप्रयत्ना अभिधीयंते, ते यस्यास्ति स भगवान्, भगो जसादी भण्णइ, सो जस्स अस्थि सो भगवं भण्णइ । २-हा० टी० प० १३६ : 'तेने' ति भुवनभ: परामर्शः तेन भगवता वर्धमानस्वामिनेत्यर्थः । ३ (क) जि० चू० पृ० १३१ : तेन भगवता-तिलोगबंधुणा । (ख) वही पृ० १३२ : 'सुयं मे आउसंतेणं' एवं णज्जति समणेणं भगवया महावीरेणं एयमज्झयणं पन्नत्तमिति किं पुण गहणं कय मिति ?, आयरिओ भणइ-xx तत्थ नामठवणादव्वाणं पडिसेहनिमित्तं भावसमणभावभगवंतमहावीरगहणनिमित्तं पुणोगहणं कयं। ४-हा० टी०प० २५५ : 'स्थविरैः' गणधरैः । ५-(क) सू० १.६.७; १.१५.२१, १.३.२.१४, १.५.१.२; १.११.५,३२ । (ख) भग० १५.८७, ८६ । (ग) उत्त० २.१, ४६; २६.१ । (घ) कल्प० १०८, १०६। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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