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________________ दसवे आलियं ( दशवेकालिक ) २३८ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक ५७-५६ टि०१५८-१६१ के लिए एक साथ पकाया जाने वाला भोजन 'यावदर्थिक' कहलाता है । पाखण्डी और अपने लिए एक साथ पकाया जाने वाला भोजन 'पाखण्डि - मिश्र' एवं जो भोजन केवल साधु और अपने लिए एक साथ पकाया जाए वह 'साधु मिश्र' कहलाता है' । इलोक ५७ : ग ध १५८. पुष्प, बीज और हरियाली से ( पुप्फेसु बीएस हरिए पा ): यहाँ पुष्प, बीज और हरित शब्द की सप्तमी विभक्ति तृतीया के अर्थ में है । १५६. उन्मिश्र हों (उम्मीसंग ) : 'उन्मिश्र' एपणा का सातवां दोष है । साधु को देने योग्य आहार हो, उसे न देने योग्य आहार (सचित्त या मिश्र) से मिला कर दिया जाए अथवा जो अचित्त आहार सचित्त या मिश्र वस्तु से सहज ही मिला हुआ हो वह 'उन्मिश्र' कहलाता है' । बलि का भोजन कणवीर आदि के फूलों से मिश्रित हो सकता है । पानक 'जाति' और 'पाटला' आदि के फूलों से मिश्रित हो सकता है । धानी अक्षत - बीजों से मिश्रित हो सकती है। पानक 'दाड़िम' आदि के बीजों से मिश्रित हो सकता है। भोजन अदरक, मूलक आदि हरित से मिश्रित हो सकता है। इस प्रकार खाद्य और स्वाद्य भी पुष्प आदि से मिश्रित हो सकते हैं । 'संहृत' में अदेय-वस्तु को सचित्त से लगे हुए पात्र में या सचित्त पर रखा जाता है और इसमें सचित्त और अचित्त का मिश्रण किया जाता है, इन दोनों में यही अन्तर है । १६०. उलिंग (उसिंग घ ) : इसका अर्थ है की टिका-नगर । विशेष जानकारी के लिए देखिए ८.१५. का इसी शब्द का टिप्पण । १६१. पनक ( पणगेसु प ) : श्लोक ५६ काया होता है। १ - पि० नि० गा० २७१ मीसज्जायं जावंतियं च पासंडिसाहुमीसं च । २- पि०नि० गा० ६०७ : दायव्यमदायध्वं च दोऽवि दव्वाई देइ मीसेउं । ओयण कुसुणाईणं साहरण तयन्नहि छोढुं ॥ ३ -- ( क ) अ० चू० पृ० ११४ : तेसि किंचि 'पुप्फेहि' बलिकूरादि असणं उम्मिस्सं भवति, 'पाणं' पाडलादीहिं कढितसीतलं वा किंचि वासितं, 'खादिमं' मोदगादी, 'सादिमं' वडिकादि । 'नीएहि' अक्खतादोहिं, 'हरिएहि' भूतणातीहि जहासंभवं । (ख) जि० चू० पृ० १८२ पुष्फेहि उम्मिसं नाम पुटफाणि कलत्रीरमंदरादीणि तेहि बलिमादि असणं उम्मिस्सं होज्जा, पाणए वीरपालादणि पुष्पाणि परित, अहया वीषाणि जह छाए परिवाणि होज्जा अमीसा वा पाणी होना पाणिए कालिमपाणगा पोयाणि होज्जा, हरिताणि विश्वसामु अलयलगारीणि पविताण होगा, जहां य असणपाणाणि उम्मिस्सगाणि पुष्फादीहि भवंति एवं खाइमसाइमाणिवि भाणियव्वाणि । (च) हा टी० प० १७४ पुष्पं जातिपालादिभिः भवेयुरिम बीरिति । ४- पि० नि० गा० ६०७ । ५. ( क ) अ० चू० पृ० ११४ (ख) जि० Jain Education International : उतिगो कीडीयाणगरं । १० चू० पृ० १८२ उतिगो नाम कोडियानगरयं । : (ग) हा० टी० प० १७५: कोटिकानगरं । ६--- (क) अ० चू० पृ० ११४ : पणओ उल्ली, ओल्लियए कहिचि अनंतराविट्ठवितं । (ख) जि० चू० पृ० १५२ : पणओ उल्ली भण्णइ । (ग) हा० टी० प० १७५ : पनकेषु उल्लीषु । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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