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________________ पिंडेसणा (पिण्डैषणा ) २३७ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ५५ टि० १५५-१५७ १५५. अध्यवतर ( अज्झोयर ग ) 'अध्यवतर' उद्गम का सोलहवाँ दोष है। अपने के लिए आहार बनाते समय साधु की याद आने पर और अधिक पकाए उसे 'अध्यवतर' कहा जाता है। मिश्र-जात' में प्रारम्भ से ही अपने और साधुओं के लिए सम्मिलित रूप से भोजन पकाया जाता हैं और इसमें भोजन का प्रारम्भ अपने लिए होता है तथा बाद में साधु के लिए अधिक बनाया जाता है। मिथ-जात' में चावल, जल, फल और साग आदि का परिमाण प्रारम्भ में अधिक होता है और इसमें उनका परिमाण मध्य में बढ़ता है। यही दोनों में अन्तर है। ___टीकाकार 'अज्झोयर' का संस्कृत रूप अध्यवपूरक करते हैं । वह अर्थ की दृष्टि से सही है पर छाया की दृष्टि से नहीं, इसलिए हमने इसका संस्कृत रूप 'अध्यवतर' दिया है। १५६. प्रामित्य ( पामिच्चंग ) 'प्रामित्य' उद्गम का नवाँ दोष है । इसका अर्थ है- साधु को देने के लिए कोई वस्तु दूसरों से उधार लेना। पिण्ड-निर्य क्ति (३१६-३२१) की वृत्ति से पता चलता है कि आचार्य मलयगिरि ने 'प्रामित्य' और 'अपमित्य' को एकार्थक भाना है। १२ वीं गाथा की वृत्ति में उन्होंने लिखा है कि वापस देने की शर्त के साथ साधु के निमित्त जो वस्तु उधार ली जाती है वह 'अपमित्य' है। इसका अगला दोष 'परिवर्तित' है। चाणक्य ने 'परिवर्तक', 'प्रामित्यक' और 'आपमित्यक' के अर्थ भिन्न-भिन्न किए हैं। उसके अनुसार एक धान्य से आवश्यक दूसरे धान्य का बदलना 'परिवर्तक' कहलाता है । दूसरे से धान्य आदि आवश्यक वस्तु को मांगकर लाना 'प्रामित्यक' कहलाता है । जो धान्य आदि पदार्थ लौटाने की प्रतिज्ञा पर ग्रहण किये जाते हैं, वे 'आपमित्यक' कहलाते हैं । भिक्षा के प्रकरण में 'आपमित्यक' नाम का कोई दोष नहीं है । साधु को देने के लिए दूसरों से मांग कर लेना और लौटाने की शर्त से लेना-ये दोनों अनुचित हैं। संभव है वृत्तिकार को 'प्रामित्य' के द्वारा इन दोनों अर्थों का ग्रहण करना अभिप्रेत हो, किन्तु शाब्दिकदृष्टि से 'प्रामित्य' और 'अपमित्य' का अर्थ एक नहीं है । 'प्रामित्य' में लौटाने की शर्त नहीं होती। 'दूसरे से मांग कर लेना'-'प्रामित्य' का अर्थ इतना ही है। १५७. मिश्रजात ( मीसजायं घ): 'मिश्र-जात' उद्गम का चौथा दोष है । गृहस्थ अपने लिए भोजन पकाए उसके साथ-साथ साधु के लिए भी पका ले, वह 'मिश्रजात' दोष है। उसके तीन प्रकार हैं-यावदर्थिक-मिथ, पाखण्डि-मिथ और साधु-मिथ । भिक्षाचर (गृहस्थ या अगृहस्थ) और कुटुम्ब १-हा० टी०प० १७४ : अध्यवपूरक- स्वार्थमूलाद्रहणप्रक्षेपरूपम् । २-हा० टी०प० १७४ : मिश्रजातं च-आदित एव गृहिसंयतमिश्रोपस्कृतरूपम् ।। ३-पि०नि० गा० ३८८-८९ : अज्झोयरओ तिविहो जावंतिय सघरमीसपासडे । मूलंमि य पुवकये ओयरई तिण्ह अट्टाए । तंडुलजलआयाणे पुष्फफले सागवेसणे लोणे । परिमाणे नाणतं अज्झोयरमोसजाए य॥ ४- हा० टी० ५० १७४ : प्रामित्य-साध्वर्थमुच्छिद्य दानलक्षणम् । ५--पि०नि० गा० ६२ वृत्ति : 'पामिच्चे' इति अपमित्य - भूयोऽपि तव दास्थामीत्येवमभिधाय यत् साधुनिमित्तमुच्छिन्नं गृह्यते तदपमित्यम् । ६-पि० नि० गा०६३ : परियट्टिए। ७-कौटि० अर्थ० २.१५. ३३ : सस्यवर्णानामर्धान्तरेण विनिमयः परिवर्तकः । सस्ययाचनमन्यतः प्रामित्यकम् । तदेव प्रतिदानार्थमापमित्यकम् । ८-(क) पि० नि० गा० २७३ : निग्गंथट्ठा तइओ अत्तट्ठाएऽवि रंधते । वृत्ति-आत्मार्थमेव राध्यमाने तृतीयो गृहनायको ब्रूते, यथा-निर्ग्रन्थानामर्थायाधिकं प्रक्षिपेति । (ख) हा० टी० ५० १७४ : मिश्रजातं च --आदित एव गृहिसंयतमिश्रोपस्कृतरूपम् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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