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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
२३६ अध्ययन ५(प्र०उ०): श्लोक ५१-५५ टि०१५३-१५४
श्लोक ५१: १५३. वनीपकों-भिखारियों के निमित्त तैयार किया हुआ ( वणिमट्ठा पगडं घ ) :
दूसरों को अपनी दरिद्रता दिखाने से या उनके अनुकूल बोलने से जो द्रव्य मिलता है उसे 'वनी' कहते हैं और जो उसको पीए-उसका आस्वादन करे अथवा उसकी रक्षा करे वह 'वनीपक' कहलाता है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने श्रमण आदि को 'वनीपक' माना है, वह स्थानाङ्गोक्त वनीपकों की ओर संकेत करता है। वहाँ पाँच प्रकार के 'वनीपक' बतलाए हैं-अतिथि-वनीपक, कृपण-वनीपक, ब्राह्मण-वनीपक, श्व-वनीपक और श्रमण-वनीपक । दृत्तिकार के अनुसार अतिथि भक्त के सम्मुख अतिथि-दान की प्रशंसा कर उससे दान चाहनेवाला अतिथि-वनीपक कहलाता है । इसी प्रकार कृपण ( रंक आदि दरिद्र) भक्त के सम्मुख कृपण-दान की प्रशंसा कर और ब्राह्मणभक्त के सम्मुख ब्राह्मण-दान की प्रशंसा कर उससे दान चाहने वाला क्रमशः कृपण-वनीपक और ब्राह्मण-वनीपक कहलाता है । श्व(कुत्ता) भक्त के सम्मुख इव-दान की प्रशंसा कर उससे दान चाहने वाला श्व-वनीपक कहलाता है । वह कहता है- 'गाय आदि पशुओं को घास मिलना सुलभ है किन्तु छि: छि: कर दुत्कारे जाने वाले कुत्तों को भोजन मिलना सुलभ नहीं। ये कैलास पर्वत पर रहने वाले यक्ष हैं। भूमि पर यक्ष के रूप में विचरण करते हैं।" श्रमण-भक्त के सम्मुख दान की प्रशंसा कर उससे दान चाहने वाला श्रमणवनीपक कहलाता है।
हरिभद्र सूरि ने 'वनीपक' का अर्थ 'कृपण' किया है। किन्तु 'कृपण' 'वनीपक का एक प्रकार है इसलिए पूर्ण अर्थ नहीं हो सकता। इस शब्द में सब तरह के भिखारी आते हैं ।
श्लोक ५५ : १५४. पूतिकर्म (पूईकम्म ख ) :
यह उद्गम का तीसरा दोष है । जो आहार आदि श्रमण के लिए बनाया जाए वह 'आधाकर्म' कहलाता है। उससे मिश्र जो आहार आदि होते हैं, वे पूतिकर्मयुक्त कहलाते हैं। जैसे--अशुचि-गंध के परमाणु वातावरण को विषाक्त बना देते हैं, वैसे ही आधाकर्म-आहार का थोड़ा अंश भी शुद्ध आहार में मिलकर उसे सदोष बना देता है। जिस घर में आधाकर्म आहार बने वह तीन दिन तक पूतिदोष-युक्त होता है इसलिए चार दिन तक (आधाकर्म-आहार बने उस दिन और उसके पश्चात् तीन दिन तक) मुनि उस घर से भिक्षा नहीं ले सकता।
१--ठा० ५।२०० वृ०: परेषामात्मदुःस्थत्वदर्शनेनानुकूलभाषणतो यल्लभ्यते द्रव्यं सा वनी प्रतीता, तां पिबति-आस्वादयति
पातीति वेति वनीपः स एव बनीपको-याचकः । २–अ० चू० पृ० ११३ : समणाति वणीमगा। ३-ठा० ५।२०० : पंच वोमगा पण्णत्ता तंजहा-अतिहिवणीमगे, किवणवणीमगे, माहणवणीमगे, साणवणीमगे, समण वणीमगे । ४-ठा० २२०० वृ०:
अवि नाम होज्ज सुलभो, गोणाईणं तणाइ आहारो। छिच्छिक्कारहयाणं न हु सुलभो होज्ज सुणताणं ।। केलासभवणा एए, गुज्झगा आगया महि ।
चरंति जक्खरूवेणं, पूयाऽपूया हिताऽहिता ॥ ५–हा० टी० ५० १७३: वनीपका:-कृपणाः । ६-(क) पि०नि० गा० २६६ :
समणकडाहाकम्मं समणाणं जंकडेण मीसं तु ।
आहार उवहि-वसही सव्वं तं पूइयं होइ॥ (ख) हा० टी० ५० १७४ : पूतिकर्म-संभाव्यमानाधाकर्मावयवसंमिश्रलक्षणम् । ७-पि०नि० गा० २६८ :
पढमदिवसमि कम्मं तिन्नि उ दिवसाणि पूइयं होइ । पूईसु तिसु न कप्पइ कप्पइ तइओ जया कप्पो॥
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