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________________ पिंडेसणा ( पिण्डेषणा ) ग १६२. निक्षिप्त ( रखा हुआ ) हो ( निक्खितं " ) : निक्षिप्त दो तरह का होता है अनन्तर निक्षिप्त और परंपरा निक्षिप्त। नवनीत जल के अन्दर रखा जाता है यह अनन्तर निक्षिप्त का उदाहरण है। संपातिम जीवों के भय से दधि आदि का बर्तन जलकुण्ड में रखा जाता है यह परंपरा निक्षिप्त का उदाहरण है' । जहाँ जल, उतिंग, पनक का अशन आदि के साथ सीधा सम्बन्ध हो जाता है वहां अशन आदि अनन्तर निक्षिप्त कहलाते हैं । जहाँ जल, उत्तिग, पनक आदि का सम्बन्ध अशन आदि के साथ सीधा नहीं होता केवल भोजन के साथ होता है वहाँ अशनादि परंपर निक्षिप्त कहलाते हैं। दोनों प्रकार के निक्षिप्त अनादि साधु के लिए है यह पाप है। १६३. उसका (अग्नि का) स्पर्श कर (संघट्टिया ध ) : साधु को भिक्षा दूं उतने समय में रोटी आदि जल न जाये, दूध आदि उफन न जाये ऐसा सोचकर रोटी या पूआ आदि को उलट कर, दूध आदि को निकाल कर अथवा जल का छींटा देकर अथवा जलते ईंधन को हाथ, पैर आदि से छू कर देना यह संघट्य दोष है । श्लोक ६३ : २३६ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक ६१ ६३ टि० १६२-१६४ ६१-६३ १६४. श्लोक ६३ अगस्त्य चूर्णि और जिनदास चूर्णि के अनुसार यह श्लोक संग्रह-गाथा है । इस संग्रह - गाथा में अगस्त्य घृणि के अनुसार निम्न नौ गाथाएँ समाविष्ट हैं : २. ३. १. असणं पाणगं वावि खाइम साइमं तहा ॥ अगिणिम्मि होज्ज निक्खित्तं तं च उस्सिक्किया दए । तं च ओसक्किया दए । तं च उज्जालिया दए || ४. ५. ५. ७. श्लोक ६१ : ८. उपदि ॥ तं च निस्सिचिया दए । तं च ओवत्तिया दए । 'तं च ओतारिता दए । ह. जिनदास रिंग के अनुसार सात श्लोकों का विषय संगृहीत है । तं च विज्झाविया दए । 'तं च उस्सिचिया दए । १ - (क) अ० चू० पृ० ११४ : निक्खित्तमणंतरं परंपरं च । अनंतरं णवणीय- पोयलियाति, परंपरनिक्खित्तमसणाति भायणत्यमुपरि जलकु' डस्स विण्णत्थं । (च) हा० टी० प० १७९ उनि भायणत्थं दधिमादि । (ख) जि० ० चू० पृ० १८२ : उदगंमि णिक्खित्तं दुविहं, तंज- अणंतरणिक्खित्तं जधा नवनीतपोग्गलियमादि, परंपरनिक्खित्तं दहिपिडोसंपादन छोड़ स्वर उदितं । अतंर परंपरं च अयंतरं नवगीत योग्यलयमादि, परोपरं जलप होवर Jain Education International २ अ० चू० पृ० ११४ : एत्थ निक्खिवत्तमिति गणेसणा दोसा भणिता । ३ (क) अ० चू० पृ० ११५ : 'जाव साधूणं भिक्ख देमि ताव मा डज्झिहिती उन्भुतिहिति वा' आहट्टऊण देति, पूवलियं वा उत्थल्लेऊण, उम्मुयाणि वा हत्थपादेहि संघट्टेत्ता । (ख) जि० ० ० १०२ संघट्टया नाम जाव अहं साहू विदेसि साब मा उभराइऊण छहित ते आवडेऊण देइ | (ग) हा० टी० प० १७५: तच्च संघट्ट्य, यावद्भिक्षां ददामि तावत्तापातिशयेन मा भूदुद्र तिष्यत इत्याघट्ट्य दद्यादिति । ४ - जिनदास चूर्णि में श्लोक संख्या २ और ५ नहीं हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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