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दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २४० अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ६३ टि० १६५-१७० १६५. (चूल्हे में) ईंधन डालकर (उस्सक्किया क) :
____ मैं भिक्षा दूं इतने में कहीं घूल्हा बुझ न जाए-इस विचार से चूल्हे में ईंधन डालकर' । १६६. (चूल्हे में) ईंधन निकाल कर (ओसविकया क) :
___मैं भिक्षा दूं इतने में कोई वस्तु जल न जाए-इस भावना से चूल्हे में से ईंधन निकाल कर । १६७. उज्ज्वलित कर (सुलगा कर) (उज्जालिया ख):
तृण, ईंधन आदि के प्रक्षेप से घुल्हे को प्रज्वलित कर । प्रश्न हो सकता है 'उस्स क्किया' और 'उज्जालिया' में क्या अन्तर है ? पहले का अर्थ है-जलते हुए 'चूल्हे में ईंधन डाल कर जलाना और दूसरे का अर्थ है---नए सिरे से धूल्हे को सुलगा कर अथवा प्रायः बुझे हुए चूल्हे को तृण आदि से जला कर । १६८. प्रज्वलित कर (पज्जालिया ख):
बार-बार ईंधन से धूल्हे को प्रज्वलित कर । १६६. बुझाकर (निव्वाविया ख) :
मैं भिक्षा हूँ इतने में कहीं कोई चीज उफन न जाए. इस दृष्टि से चूल्हे को बुझा कर । १७०. निकाल कर (उस्सिचियाग)
पात्र बहुत भरा हुआ है, इसमें से आहार बाहर न निकल जाए--इस भय से उत्सेचन कर---बाहर निकालकर अथवा उसको हिलाकर उसमें गर्म जल डालकर।
१-(क) अ० चू० पृ० ११५ : उस्सिक्किया अवसंतुइया । 'जाव भिक्खं देमि ताव मा विज्झाहिति' त्ति सअट्ठाए तन्निमित्त
चेइहरालक्खे (?) वि परिहरितव्वं । (ख) जि० चू० पृ० १८२ : उस्स किया नाम अवसंतुइय साधुनिमित्तं उस्सिक्किज्जा तहा जहा अहं भिक्खं दाहामि ताव मा
उम्भावेतित्ति । (ग) हा० टी० ५० १७५ : 'उस्सक्किय' ति यावद्भिक्षां ददामि तावन्मा भूद्विध्यास्यतीत्युरिसच्य दद्यात् । २ ---(क) अ० चू० पृ० ११५ : ओसक्किय उम्मुयाणि ओसारेऊण, मा ओदणो डज्झिहिति उवधुप्पिधिति वा किंचि ।
(ख) हा० टी० ५० १७५ : 'ओसक्किया' अवसl अतिदाहभयादुल्मकान्युत्सार्येत्यर्थः । ३---(क) अ० चू० पृ० ११५ : उज्जालिय कलिच---कुतलगादीहि । उस्सिक्कणुज्जलणविसेसो-जलंताण चेव उम्मुयाणं विसेसुज्जा
लणट्ठमुप्पुजणं उस्सिक्कणं, बहुविज्झातस्स तिणादीहि उज्जालणं। (ख) जि० चू० पृ०१८२-१८३ : उज्जालिया नाम तणाईणि इंधणाणि परिक्खि विऊण उज्जालयइ, सीसो आह
उस्सक्कियउज्जालियाणं को पइविसेसो ?, आरिओ आह- उस्सक्केति जलंतमवि, उज्जालयइ पुण संजतट्ठाए उठ्ठिता
सव्वहा विज्झायं अणि तणाईहिं पुणो उज्जालेति । (ग) हा० टी० ५० १७५ : 'उज्ज्वाल्य' अर्धविध्यातं सकृदिन्धनप्रक्षेपेण । ४- हा० टी० ५० १७५ : 'प्रज्वाल्य' पुनः पुनः (इन्धनप्रक्षेपेण) । ५- (क) अ० चू० पृ० ११६ : पाणगादिणा देयेण विज्झती देति ।
(ख) जि० चू० पृ० १८३ : णिव्वाविया नाम जाव भिक्खं देमि ताव उदणादी डज्झिहिति ताहे तं अगणि विज्ावेऊण देइ ।
(ग) हा० टी०प० १७५ : 'निव्वाविया' निर्वाप्य दाहभयादेवेति भावः । ६- (क) अ० चू० पृ० ११६ : उस्सिचिया कढंताओ ओकढिऊण उण्होदगादि देति । (ख) जि० चू० पृ० १८३ : उस्सिचिया नाम तं अइभरियं मा उन्भूयाएऊण छड्डिज्जिहिति ताहे थोवं उक्कड्ढोऊण पासे ठवेइ,
अहवा तओ चेव उक्किड्ढिऊणं उण्होदगं दोच्चगं वा देइ । (ग) हा० टी० ५० १७५ : 'उत्सिच्य' अतिभृतादुज्झनभयेन ततो वा दानार्थ तीमनादीनि ।
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