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________________ पिडेसणा ( पिण्डषणा) २४१ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ६५-६७ टि०१७१-१७६ १७१. छींटा देकर (निस्सिचिया ग) : उफान के भय से अग्नि पर रखे हुए पात्र में पानी का छींटा देकर अथवा उसमें से अन्न निकालकर' । १७२. टेढ़ाकर (ओवत्तिया घ) : अग्नि पर रखे हुए पात्र को एक ओर से झुकाकर । १७३. उतार कर (ओयारिया घ): साधु को भिक्षा दूं इतने में जल न जाए- इस भय से उतारकर । श्लोक ६५ १७४. ईंट के टुकड़े (इट्टालं ख) : मिट्टी के ढेले दो प्रकार के होते हैं ---एक भूमि से सम्बद्ध और दूसरे असम्बद्ध । असम्बद्ध ढेले के तीन प्रकार होते हैंउत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । पत्थर उत्कृष्ट है, लोष्ट्र मध्यम है और ईंट जघन्य है। श्लोक ६६: १७५. अगस्त्य चूरिण में ६६ वें श्लोक का प्रारम्भ गभीरं झुसिरं चेव'--इस चरण से होता है जब कि जिनदास और हरिभद्र के सम्मुख जो आदर्श था उसमें यह ६६ वें श्लोक का तीसरा चरण है। अगस्त्य सिंह ने यहाँ 'अधोमालापहृत' की चर्चा की है, जब कि जिनदास और हरिभद्र के आदर्श में उसका उल्लेख नहीं है। श्लोक ६७: १७६. मचान (मंचं ग) : चार लट्ठों को बाँधकर बनाया हुआ ऊंचा स्थान जहाँ नमी, सीलन तथा जीव-जन्तुओं से बचाने के लिए भोजनादि रखे जाते हैं। अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार यह सोने या चढ़ने के काम आता था । १-(क) अ० चू० पृ० ११६ : जाव भिक्खं देमि ताव मा उम्भिहितित्ति पाणिताति तत्थ णिरिसचति । (ख) जि० चू० पृ० १८३ : निस्सिचिया णाम तं अहियं दव्वं अण्णत्थ निस्सिचिऊण तेण भायणेण ऊणं देइ तं अहवा तम द्दहियगं उदणपत्तसागादी जाव साहूणं भिक्खं देमि ताव मा उन्भूयावेउत्तिकाऊण उदगादिणा परिसिंचिऊण देइ । (ग) हा० टी० ५० १७५ : 'निषिच्य' तद्भाजनाद्रहितं द्रव्यमन्यत्र भाजने तेन दद्यात्, उद्वर्तनभयेन वाऽद्रहितमुदकेन निषिच्य । २-(क) अ० चू० १० ११६ : अगणिनिक्खित्तमेव एक्कपस्सेण ओवत्त तूण देति । (ख) जि० चू० पृ० १८३ : उव्वत्तिया नाम तेणेव अगणिनिक्खित्त ओयत्तेऊण एगपासेण देति । (ग) हा० टी० ५० १७५ : 'अपवर्त्य' तेनेवाग्निनिक्षिप्तेन भाजनेनान्येन वा दद्यात् । ३–(क) जि० चू० पृ० १८३ : ओयारिया नाम जमेतमद्दहियं जाव साधूणं भिक्खं देमि ताव नो डज्झिहित्तित्ति उत्तारेज्जा। (ख) हा० टी० ५० १७५ : 'अवतार्य' दाहभयाद्दानार्थ वा दद्यात् । ४-डगला पुण दुविधा-सम्बद्धा भूमिए होज्जा असम्बद्धा वा होज्जा। जे असम्बद्धा ते तिविधा..."। उवला उक्कोसा, लेछु मसिणा मज्झिमा, इट्टालं जहन्न । ५- अ० चू० पृ० ११६ : गहणेसणा विसेसो निक्खित्तमुपदिट्ठ, गवेषणा विसेसो पागडकरणमुपदिस्सति जहा 'गंभीरं झुसिर' सिलोगो। ६-अ० चू० पृ० ११७ : एतं भूमिघरादिसु अहेमालोहडं। ७-अ० चू० पृ० ११७ : मंचो सयणीयं चडणमंचिगा वा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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