________________
दसवेआलियं ( दशवेकालिक )
१७७. मालापहृत (मालोहदं): मालापत उद्गम का तेरहवां दोष है (१) ऊर्ध्व - मालापहृत - ऊपर से उतारा हुआ ।
(२) अधो- मालापहृत — भूमि-गृह ( तल-घर या तहखाना ) से लाया हुआ । (३) तिर्यग्-मालापहृत-ऊँडे बर्तन या कोठे आदि में से झुककर निकाला हुआ' । यहाँ सिर्फ मालापत का निषेध किया गया है। अगस्त्य
टिप्पण |
२४२ अध्ययन ५ ( प्र० उ०) श्लोक ६९-७० टि० १७७-१७६
:
इलोक ६६ :
१७८. पत्ती का शाक (सन्निरं):
इसके तीन प्रकार है-
६७ वें श्लोक में निश्रेणि, फलक, पीठ मंच, कील और प्रासाद इन छः शब्दों के अन्वय में चूर्णिकार और टीकाकार एकमत नहीं है। भूमिकार निथेगि, फलक और पीठ को आरोहण के साधन तथा मंच की और प्रसाद को आरोह-स्थान मानते हैं।
आयार चुला के अनुसार घूर्णिकार का मत ठीक जान पड़ता है। वहाँ ११८७ वें सूत्र में अन्तरिक्ष स्थान पर रखा हुआ आहार लाया जाए उसे मालापहृत कहा गया है और अन्तरिक्ष-स्थानों के जो नाम गिनाए हैं उनमें थंभंसिवा', मंचसिवा, पासायंसि वा' – ये तीन शब्द यहाँ उल्लेखनीय हैं। इन्हें आरोह्य स्थान माना गया है। १८७ वें सूत्र में आरोहण के साधन बतलाए हैं उनमें 'पीढं वा, फलगं वा, निस्सेणि वा' -इनका उल्लेख किया है। इन दोनों सूत्रों के आधार पर कहा जा सकता है कि इन छहों शब्दों में पहले तीन शब्द जिन पर चढ़ा जाए उनका निर्देश करते हैं और अगले तीन शब्द चढ़ने के साधनों को बताते हैं ।
टीकाकार ने 'मंच' और 'कील' को पहले तीन शब्दों के साथ जोड़ा उसका कारण इनके आगे का 'च' शब्द जान पड़ता है । संभवतः उन्होंने 'च' के पूर्ववर्ती पांचों को प्रासाद से भिन्न मान लिया ।
श्लोक ७० :
काम इस भिन्न है- देखिए ६६ वें श्लोक का
अगस्त्य सिंह स्थविर ने इसका अर्थ केवल 'शाक' किया है। जिनदास और हरिभद्र इसका अर्थ 'पत्र-शाक करते हैं।
१७६. घीया ( तुंबागं ग ) :
जिसकी त्वचा म्लान हो गई हो और अन्तर्-भाग अम्लान हो, वह 'तुंबाग' कहलाता है। हरिभद्र सूरि ने तुम्बाक का अर्थ छाल व
१- पि० नि० गा० ३६३ ।
२ - तुलना के लिए देखिए आयारचूला १२८७-८
अधो मालापहृत के लिए देखिए आधारचूला ११८७ ८९ ।
३ - (क) अ० चू० पृ० ११७ : निस्सेणी मालादीण आरोहण-कट्ठ संघातिमं फलगं, पहुलं कट्टमेव व्हणाति उपयोज्जं पीढं । एतानि उसवेताण उद्धं वेऊण आहे चडेज्न मंचो सपनीयं चटणमंबिया या खीलो भूमिसमाकोट्टितं कट्ठे पासादो समालको घरविसेसो । एताणि समणट्ठाए दाया चडेज्जा
(ख) जि० ० ० १३
मिरची सोगसिद्धा फलगं महत्तं सुवन्नयं भवइ, पोटयं महाणपीडा, उस्तवित्ता नाम एलाणि उत्ताणि काऊ तिरिन्दानि वा आहेज्जा, मंचो सोगसिद्धो, कोलो उवा, पासा पसिद्ध एतेहि दापये संजताए आता मसपाणं आणेन्ा ।
Jain Education International
४ - हा० टी० प० १७६ : निश्रेण फलकं पीठम् 'उस्सवित्ता' उत्सृत्य ऊद्ध कृत्वा इत्यर्थः, आरोहेन्मञ्च, कीलकं च उत्सूत्य कमारोहे दित्याह प्रासादम् ।
५- अ० चू० पृ० ११७ : 'सणिरं' सागं ।
६ - ( क ) जि० चू० पृ० १८४ : सन्निरं पत्तसागं ।
(ख) हा० टी० प० १७६ : सन्तिरमिति पत्रशाकम् ।
७- ( क ) अ० चू० पृ० ११७ तुम्बागं ज तयाए मिलाणममिलाणं अंतो त्वम्लानम् । (ख) जि० चू० पृ० १८४ : तुम्बागं नाम जं तयामिलाणं अब्भंतरश्रो अद्दयं ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org