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________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा) २४३ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ७१-७२ टि०१८०-१८३ मज्जा के बीच का भाग किया है और मतान्तर का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया है कि कई व्याख्याकार इसका अर्थ हरी तुलसी करते हैं' । शालिग्रामनिघण्टु के अनुसार यह दो प्रकार का होता है-एक लम्बा और दूसरा गोल । हिन्दी में 'तुंबाक' को कद्, लौकी तथा रामतरोई और बंगला में लाउ कहते हैं। श्लोक ७१: १८०. सत्तू ( सत्तुचुण्णाइं २ ) : अगस्त्य चूणि में सत्तू और चूर्ण को भिन्न-भिन्न माना है। जिनदास महत्तर और हरिभद्र सूरि 'सत्तुचुण्णाई' का अर्थ सत्त करते हैं। सत्तू और चूर्ण ये भिन्न शब्द हों तो चूर्ण का अर्थ चून, जो आटा और घी को कड़ाही में भूनकर चीनी मिलाकर बनाया जाता है, हो सकता है । हरियाना में चुन के लड्डू बनते हैं। सत्तू चूर्ण को एक माना जाए तो इसका अर्थ पिष्टक होना चाहिए । सत्तू को पानी से घोल, नमक मिला आग पर पकाया जाता है । कड़ा होने पर उसे उतार लिया जाता है । यह 'पिष्टक' कहलाता है। १८१. बेर का चूर्ण ( कोलचुण्णाई ख ) : ___अगस्त्यसिंह और जिनदास ने इसका अर्थ बेर का चूर्ण और हरिभद्र ने बेर का सत्तू किया है। आयार चूला में पीपल, मिर्च, अदरक आदि के चूर्णों का उल्लेख है । १८२. तिल-पपड़ी ( सक्कुलि ग ) . चूणि और टीका में इसका अर्थ तिल-पपड़ी किया है। चरक और सुश्रुत की व्याख्या में कचौरी आदि किया गया है। ___ श्लोक ७२ १८३. न बिकी हों ( पसढं क): जो विक्रेय वस्तु बहुत दिनों तक न बिके उसे 'प्रशठ' या 'प्रसृत' कहा गया है । टीकाकार ने इसका संस्कृत रूप 'प्रसह्य' किया है। १-हा. टी० ५० १७६ : 'तुम्बाकं त्वग्मिजान्तर्वति आर्द्रा वा तुलसीमित्यन्ये । २-शालि नि० पृ. ८६० : अलाबुः कथिता तुम्बी द्विधा दीर्घा च वर्तुला । ३ -- अ० चू० पृ० ११७ : "सत्तु या जवातिधाणाविकारो" । "चुण्णाई" अण्णे पिटुबिसेसा । ४ (क) जि० चू० पृ० १८४ : सत्तुचुण्णाणि नाम सत्तुगा, ते य जवविगारी। (ख) हा० टी० ५० १७६ . 'सक्तुचूर्णान्' सक्तून् । ५---(क) अ० चू० पृ० ११७ : कोला बदरा तेसि चुण्णाणि । (ख) जि० चू० पृ० १८४ : कोलाणि बदराणि तेसि चुण्णो कोलचुण्णाणि । ६-हा० टी० ५० १७६ : 'कोलचूर्णान्' बदरसक्तून् । ७ आ० चू० २०१०७ : पिप्पलिचुण्णं वा .... मिरियचुण्णं वा... 'सिंगबेरचुण्णं वा....."अन्नयरं वा तहप्पगारं। ८-(क) अ० चू० पृ० ११७ : सक्कुली तिलपप्पडिया। (ख) जि० चू० पृ० १८४ : सक्कुलीति पप्पडिकादि । (ग) हा० टी० ५० १७६ : 'शष्कुली' तिलपर्पटिकाम् । --(क) सु० २७०.२६७ । (ख) भक्ष्यपदार्थ वर्ग : ४६.५४४ । १० -(क) अ० चू० पृ० ११८ : पसढ मिति पच्चक्खातं तददिवसं विक्कतं न गतं । (ख) जि० चू० पृ० १८४ : तं पसढं नाम जं बहदेवसियं दिणे दिणे विक्कायते तं । ११-हा० टी०प० १७६ : 'प्रसा' अनेकदिवसस्थापनेन प्रकटम् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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