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दसवेआलियं (दशवैकालिक)
२४४ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ७३ टि० १८४-१८५
१८४. रज से ( रएण ख ) :
रज का अर्थ है-हवा से उड़कर आई हुई अरण्य की सूक्ष्म सचित्त ( सजीव ) मिट्टी' ।
__ श्लोक ७३ : १८५. पुद्गल, अनिमिष (पुग्गलं क . अणिमिसं ख ) :
पुद्गल शब्द जैन-साहित्य का प्रमुख शब्द है। इसका जैनेतर साहित्य में क्वचित् प्रयोग हुआ है। बौद्ध-साहित्य में पुद्गल चेतन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । कौटिलीय अर्थशास्त्र में इसका प्रयोग आभरण के अर्थ में हुआ है। जैन-साहित्य में पुद्गल एक द्रव्य है । परमाणु और परमाणु-स्कन्ध-इन दोनों की संज्ञा पुद्गल' है । कहीं-कहीं आत्मा के अर्थ में भी इसका प्रयोग मिलता है।
प्रस्तुत श्लोक में जो 'पुद्गल' शब्द है उसके संस्कृत रूप 'पुद्गल' और 'पौद्गल' दोनों हो सकते हैं । चूणि और टीका-साहित्य में पुद्गल का अर्थ मांस भी मिलता है । यह इसके अर्थ का विस्तार है । पौद्गल का अर्थ पुद्गल-समूह होता है। किसी भी वस्तु के कलेवर, संस्थान या बाह्य रूप को पौद्गल कहा जा सकता है । स्थानांग में मेघ के लिए 'उदगपोग्गलं' (सं० उदकपौद्गलम्') शब्द प्रयुक्त हुआ है। पौद्गल का अर्थ मांस, फल या उसका गूदा--इनमें से कोई भी हो सकता है। इसलिए यहाँ कुछ व्याख्याकारों ने इसका अर्थ मांस और कइयों ने वनस्पति--फल का अन्तर्भाग किया है।
इस प्रकार अनिमिष शब्द भी मत्स्य तथा वनस्पति दोनों का वाचक है। धूणिकार पुद्गल और अनिमिष का अर्थ मांस-मत्स्यपरक करते हैं । वे कहते हैं- साधु को मांस खाना नहीं कल्पता, फिर भी किसी देश, काल की अपेक्षा से इस अपवाद सूत्र की रचना हुई है । टीकाकार मांस-परक अर्थ के सिवाय मतान्तर के द्वारा इनका वनस्पति-परक अर्थ भी करते हैं।
आयारघूला १।१३३-१३४ वें सूत्र से इन दो श्लोकों की तुलना होती है। १३३ वें सूत्र में इक्षु, शाल्मली इन दो वनस्पतिवाचक शब्दों का उल्लेख है और १३४ वें सूत्र में मांस और मत्स्य शब्द का उल्लेख है। वृत्तिकार शीलाङ्क सूरि मांस और मत्स्य का लोक-प्रसिद्ध अर्थ करते हैं, किन्तु वे मुनि के लिए इन्हें अभक्ष्य बतलाते हैं। उनके अनुसार बाह्योपचार के लिए इनका ग्रहण किया जा सकता है, किन्तु खाने के लिए नहीं।
अगस्त्यसिंह स्थविर, जिनदास महत्तर और हरिभद्र सूरि के तथा शीलाङ्कसूरि के दृष्टिकोण में अन्तर केवल आशय के अस्पष्टीकरण और स्पष्टीकरण का है, ऐसा सम्भव है । वे अपवाद रूप में मांस और मत्स्य के लेने की बात कहकर रुक जाते हैं, किन्तु उनके उपयोग की चर्चा नहीं करते । शीलाङ्कसूरि उनके उपयोग की बात बता सूत्र के आशय को पूर्णतया स्पष्ट कर देते हैं।
१-(क) अ० चू० पृ० ११८ : रयेण अरण्णातो वायुसमुद्धतेण समंततो घत्थं ।
(ख) जि० चू० १० १८४ : तत्थ वायुणा धुएण आरण्णेण सचित्रोण रएण । (ग) हा० टी० ५० १७६ : 'रजसा' पाथिवेन । -कौटि० अर्थ० २.१४ प्र० ३२ : तस्माद् वज्रमणिमुक्ताप्रवालरूपाणां जातिरूपवर्णप्रमाणपुद्गल लक्षणान्युपलभेत । व्याख्याः-उच्चावचहरणोपायसम्भवात्, वज्रमणिमुक्ताप्रवालरूपाणां वज्रादिरूपाणां चतुर्णां, जातिरूपवर्णप्रमाणपदगललक्षणादि, जाति-उत्पत्तिः, रूपम् -आकारः, वर्ण:-रागः, प्रमाणं-माषकादिपरिमाणं, पुद्गलम्-आभरणं, लक्षणं--लक्ष्म
एतानि उपलभेत -विद्यात् । ३-सू० १.१३.१५: उत्तमपोग्गले । वृत्ति-उत्तमः पुदगल--आत्मा। ४---नि० भा० गा० १३५ चूणि : पोग्गल मोयगदंते....... पोग्गलं--मंसं । ५--ठा० ३.३५६ वृ० : उदकप्रधानं पौद्गलम्--पुद्गलसमूहो मेघः इत्यर्थः, उदकपौद्गलम् । ६-(क) अ० चू० पृ० ११८ : पोग्गलं प्राणिविकारो। ..अणिमिसो वा कंटकायितो।
(ख) जि० चू० पृ० १८४ : बहुअट्ठिय व मंसं मच्छं वा बहुकटयं । ७-(क) अ० चू० पृ० ११८ : मंसातीण अग्गहणे सति देश-काल गिलाणावेक्खमिदमववातसुत्तं ।
(ख) जि० चू० पृ० १८४ : मंसं वा व कप्पति साहूणं कंचि कालं देसं पडुच्च इमं सुत्तमागतं । ८-हा० टी० ५० १७६ : बह्वस्थि 'पुद्गल' मांसम् 'अनिमिषं वा' मत्स्य वा बहुकण्टकम्, अयं किल कालाद्यपेक्षया ग्रहणे
प्रतिषेधः, अन्ये त्वभिदधति - वनस्पत्यधिकारात्तथाविधफलाभिधाने एते इति । ह-आ० चू०१।१३४ ७० : एवं मांससूत्रमपि नेयम्, अस्य चोपादानं क्वचिल्लूतायुपशमनार्थ सद्वंद्योपदेशतो बाह्यपरिभोगेन
स्वेदादिना ज्ञानाद्युपकारकत्वात् फलवदष्टं, भुजिश्चात्र बहिःपरिभोगा), नाभ्यवहारार्थे, पदातिभोगवदिति ।
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