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पिंडेसणा (पिण्डैषणा)
२४५ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ७५ टि० १८६-१८६
१५६. आस्थिक (अत्थियं ग) :
दोनों चूणियों में 'अच्छियं' पाठ मिलता है । इसका संस्कृत रूप 'आक्षिक' बनता है। 'आक्षिक एक प्रकार का रंजक फल है। आक्षिकी नामक एक लता भी होती है । उसका फल पित्त-कफ नाशक, खट्टा तथा वातवर्धक होता है ।
हारिभद्रीय वृत्ति के अनुसार 'अत्थियं' पाठ है। वहाँ इसका अर्थ अस्थिक-वृक्ष का फल किया गया है। भगवती (२२.३) और प्रज्ञापना (१) में बहुबीजक वनस्पति के प्रकरण में 'अस्थिय' शब्द प्रयुक्त हुआ है। इसकी पहचान 'अगस्ति या अगस्त्य' से की जा सकती है। इसे हिन्दी में 'अगस्तिया', 'हथिया', 'हदगा' कहते हैं। अगस्तिया के फूल और फली होते हैं। इसकी फली का शाक भी बनता है। १८७. तेन्दू (तिदुयंग):
तेन्दू भारत, लंका, बर्मा और पूर्वी बंगाल के जंगलों में पाया जाने वाला एक मझोले आकार का वृक्ष है । इस वृक्ष की लकड़ी को आबनूस कहते हैं। इस वृक्ष का खाया जाने वाला फल नींबू के समान हरे रंग का होता है और पकने पर पीला हो जाता है। १८८. फली (सिबलि ):
अगस्त्य चूर्णि और हारिभद्रीय वृत्ति में 'सिंबलि' का अर्थ निष्पाव (वल्ल धान्य) आदि की फली और जिनदास पणि में केवल फली किया है । शाल्मलि के अर्थ में 'सिंबलि' का प्रयोग देशी नाममाला में मिलता है।
शिष्य ने पूछा--७०वें श्लोक में अपक्व प्रलम्ब लेने का निषेध किया है, उससे वे स्वयं निषिद्ध हो जाते हैं। फिर इनका निषेध क्यों? आचार्य ने कहा-वहाँ अपक्व प्रलम्ब लेने का निषेध है, यहाँ बहु-उज्झन-धर्मक वस्तुओं का। इसलिए ये पक्व भी नहीं लेनी चाहिए।
श्लोक ७५ : १८९. श्लोक ७५ :
अब तक के इलोकों में मुनि को अकल्पनीय आहार का निषेध कर कल्पनीय आहार लेने की अनुज्ञा दी है। अब ग्राह्य-अग्राह्य जल के विषय में विवेचन है" । जल भी अकल्प्य छोड़ कल्प्य ग्रहण करना चाहिए ।
१- (क) अ० चू० पृ० ११८ : अच्छियं ।
(ख) जि० चू० पृ०१८४ : अच्छि यं । २-सु० ४६.२०१ : फलवर्ग । ३--च० सू० २७.१६० : पित्तश्लेष्मध्नमम्लं च वातलं चाक्षिकीफलम् । ४-हा० टी० ५० १७६ : 'अत्थिकं' अस्थिकवृक्षफलम् । ५-शालि० नि० भू० पृ० ५२३ । ६-(क) जि० चू० पृ० १८४ : तिदुयं-टिबरुयं ।
(ख) हा० टी० ५० १७६ : 'तेंदुकं' तेंदुरुकीफलम् । ७ -- नालन्दा विशाल शब्द सागर। ८-(क) अ० चू०५ ११८ : णिप्फवादि सेंगा-सेंबलि ।
(ख) हा० टी० प०१७६ : 'शाल्मलि वा' वल्लादिफलिम् । (ग) जि० चू० पृ०१८४ : सिंबलि-सिंगा। -दे० ना० ८.२३ : सामरी सिंबलए-सामरी शाल्मलिः । १०—जि० चू० पृ० १८४-८५ : सीसो आह–णणु पलंबगहणेण एयाणि पहियाणि, आयरिओ भण्णइ -एताणि सत्थोवहताणिवि
अन्नाम समुदाणे फासुए लब्भमाणे ण गिव्हियव्वाणि । ११-(क) अ००प०११८ : 'एगालंभो अपज्जत्तं' ति पाण-भोयणेसणाओ पत्थुयाओ, तत्व किंचि सामण्णमेव संभवति भोयणे
पाणे य,..." अयं तु पाणग एव बिसेसो संभवतीति भण्णति । (ख) जि० चू० पृ० १८५ : जहा भोयणं अकप्पियं पडिसिद्धि कप्पियमणुण्णायं तहा पाणगमवि भण्णइ ।
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