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दसवेलियं ( दशकालिक )
१०. उच्चावच पानी ( उच्चावयं पाणं क )
उच्च और अवच शब्द का अर्थ है ऊँच और नीच । जल के प्रसङ्ग में इनका अर्थ होगा- -श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ । जिसके वर्ण, गन्ध,
रस और स्पर्श श्रेष्ठ हों वह 'उच्च' और जिसके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श श्रेष्ठ न हों वह 'अवच' कहलाता है । जो वर्ग में सुन्दर गंध से अति दुर्गन्ध रहित रस से परिपश्य और स्पर्श से स्निन्यता रहित हो यह उच्च जल है और यह साधु को कल्पता है। जो ऐसे वर्ण आदि से रहित है वह अवच और अग्राह्य है ।
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द्राक्षा-जल 'उच्च जल' है और आरनाल का पूति-दुर्गन्धयुक्त जल 'अवच जल' है' : 'उच्चावच' का अर्थ नाना प्रकार भी होता है ।
१९१. गुड़ के घड़े का धोवन ( वारघोयणं
चूर्णि-द्वय में 'वालधोवणं' पाठ है । चूर्णिकार ने यहाँ रकार और लकार का एकत्व माना है । 'वार' घड़े को कहते हैं । फाणित - गुड़ आदि से लिप्त घड़े का धोवन 'वार धोवन' कहलाता है ।
२४६ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक ७५ टि० १६० १६३
ख
) :
१६२. आटे का घोवन ( संसेइमं ग )
'संसेइम का' अर्थ आटे का घोवन होता है। शीलाङ्काचार्य इसका अर्थ तिल का घोवन और उबाली हुई भाजी जिसे ठंडे जल से सींचा जाए, वह जल, करते हैं । अगस्त्यसिंह स्थविर और अभयदेव सूरि शीलाङ्काचार्य के दूसरे अर्थ को स्वीकृत करते हैं । निशीथ चूर्णि में भी 'संसेइम' का यह दूसरा अर्थ मिलता है" ।
१२२. जो अघुनाधीत ( तत्काल का पोवन ) हो ( अहणाघोष )
यह एषणा के आठवें दोष 'अपरिणत' का वर्जन है । आयार चूला के अनुसार अनाम्ल - जिसका स्वाद न बदला हो, अव्युत्क्रान्त
१ – (क) अ० चू० पृ० ११८: 'उच्चावयं' अणेगविधं वण्ण-गंध-रस-फार्सोहि हीण-मजिमुत्तमं ।
तं
(ख) जि० चू० पृ० १८५ : उच्चं च अवयं च उच्चावचं, उच्च नाम जं वण्णगंध रस फासेहि उववेयं, तं च मुद्दियादिपाणगादी, चत्वादि ओसोम गंध अपूर्व एसओ परिकापरसं फास अतिं पण कम्प अवयं नाम जयेतेहि वगंधर काहिं विहोणं अवयं भन्नति एवं ता वससीए वैष्यति । (ग) हा० टी० प० १७७ : 'उच्च' वर्णाद्युपेतं द्राक्षापानादि 'अवचं' वर्णादिहीनं पूत्यारनालादि । २- जि० ० चू० पृ० १८५ : अहवा उच्चावयं णाम णाणापगारं भन्नइ ।
३ (क) अ० चू० पृ० ११८, ११६ : अदुवा वालधोवणं, 'वालो' वारगो र लयोरेकत्वमिति कृत्वा लकारो भवति वालः,
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तेण
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वार एव वालः ।
(ख) जि० चू० पृ० १८५: रकारलकाराणमेगत्तमितिकाउं वारओ वालओ भन्नइ ।
४ – (क) अ० चू० पृ० ११६ : तस्य धोवणं फाणितातीहि लित्तस्स वालादिस्स ।
(ख) नि० ० ० १०५
सोय गुलानियादिभावणं तस्स घोषगंवारो।
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(ग) हा० डी० १० १७७
५ - (क) जि० चू० पृ० १८५
:
(ख) हा० टी० प० १७७
६-० ० १२९० विनोदकम् परिवारणिकादिसंवाद
'बारकवाद' गुडघाचनमित्यर्थः ।
संसेइमं नाम पाणियं अहेऊण तस्सोवरि पिट्ठे संतेइज्जति, एवमादि तं संसेदियं मन्नति । 'संस्वेदजं' पिष्टोदकादि ।
७ (क) अ० चू० पृ० ११६ : जम्मि किश्चि सागादी संसेदेत्ता सित्तोसित्तादि कीरति तं संसेइमं ।
( ख ) ठा० ३.३७६ वृ० : संसेकेन निर्वृतमिति संसेकिमम् अरणिकादिपत्रशाकमुक्तालय येन शीतलजलेन संसिध्यते ।
(क) नि० १५ गा० ४७०६ ० : ससेतिमं णाम पिट्ठरे पाणियं तावेत्ता पिण्डियट्ठिया तिला तेण ओलहिज्जेति तत्थ जे आमा तिला ते संसेतिमामं भण्णति । आदिग्गहणेणं जं पि अण्णं किचि एतेणं कमेण संसिज्झति तं पि संसेतिमामं भण्णति । (ख) नि० १७.१३२ गा० ५२५९ ० संसेतिमं तिला उष्वाभिए सिणा जति सोतोदगा घोवंति तो संसेतिमं भणति ।
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