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________________ पिंडेसणा (पिण्डषणा) २४७ अध्ययन ५ (प्र० उ०) श्लोक ७६-७८ टि० १६४-१६५ जिसकी गन्ध न बदली हो, अपरिणत--जिसका रंग न बदला हो, अविध्वस्त-विरोधी शस्त्र के द्वारा जिसके जीव ध्वस्त न हुए हों, वह अधुनाधौत जल अप्रासुक (सजीव) होने के कारण मुनि के लिए अनेषणीय (अग्राह्य) होता है । जो इसके विपरीत आम्ल, व्युत्क्रान्त, परिणत, विध्वस्त होने के कारण प्रासुक ( अजीव ) हो वह चिरधौत जल मुनि के लिए एषणीय (ग्राह्य) होता है। यहाँ केवल अधुनाधौत जल का निषेध और चिरधौत होने के कारण जो अजीव और परिणत (परिणामान्तर प्राप्त) हो गया हो उसे लेने का विधान किया गया है। जिनदास चूणि और टीका में 'संस्वेदज' जल लेने का उत्सर्ग-विधि से निषेव और आपवादिक विधि से विधान किया है। परम्परा के अनुसार जिस धोवन को अन्तर्मुहुर्न काल न हुआ हो वह अधुनाधौत और इसके बाद का चिरचौत कहलाता है । इसकी शास्त्रीय परिभाषा यह है -जिसका स्वाद, गंध, रस और स्पर्श न बदला हो वह अधुनाधौत और जिसके ये बदल गए हों वह चिरधौत है । इसका आधार अधुनाधौत और अप्रासुक के मध्यवर्ती उक्त चार विशेषण हैं। श्लोक ७६ः १६४. मति ( मईएख) : यहाँ मति शब्द कारण से उत्पन्न होने वाले ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । वर्ण आदि के परिवर्तन और अपरिवर्तन जल के अजीव और सजीव होने का निर्णय करने में कारण बनते हैं। मति द्वारा चिरधौत को जानने के लिए तीन उपाय बताए जाते हैं १-पुष्पोदक का विगलित होना। २-बिन्दुओं का सूखना। ३--चावलों का सीझना । चूर्णिकार के अनुसार ये तीनों अनादेश (असम्यग विधान) हैं, क्योंकि पुष्पोदक कभी-कभी चिरकाल तक टिक सकता है। जल की बूंदें भी सर्दी में चिरकाल से सूखती हैं और गर्मी में शीघ्र सूख जाती हैं। कलम, शालि आदि चावल जल्दी सीझ जाते हैं। घटिया चावल देरी से सीझते हैं । पुष्पोदक के विगलित होने में, बिन्दुओं के सूखने में और चावलों के सीझने में समय की निश्चितता नहीं है, इसलिए इनका कालमान जल के सचित्त से अचित्त होने में निर्णायक नहीं बनता । श्लोक ७८: १६५. बहुत खट्टा ( अचंबिलंग ) : आगम-रचना-काल में साधुओं को यवोदक, तुषोदक, सौवीर, आरनाल आदि अम्ल जल ही अधिक मात्रा में प्राप्त होते थे। उनमें १.-आ० चु० १६९ : से भिक्खू वा भिक्खुणी वा...से जं पुण पाणगजायं जाणिज्ना, तंजहा-उस्सेइमं वा, संसेइमं वा, चाउलोदग वा, अन्नयरं वा तहप्पगारं पाणगजायं अहुणाधोयं अणंबिलं अव्वोक्कतं अपरिणयं अविद्धत्थं अफासुयं अणेस णिज्ज ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिगाहिज्जा। २-अ० चू० पृ० ११६ : 'आउक्कायस्स चिरेण परिणामो' त्ति मुद्दियापाणगं पक्खित्तमेत्तं, वालगे वा धोयमेत्ते, सागे वा पक्खित्तमेत्ते, अभिणव-धोतेसु चाउलेसु। ३-(क) जि० चू० पृ० १८५ : ताव अन्नंमि लब्भमाणे ण पडिगाहेज्जा । (ख) हा० टी० प० १७७ : एतदशनवदुत्सर्गापवादाभ्यां गृह्णीयारिति । ४-जि० चू० पृ० १८५-८६ : अपुच्छिए वण्णगंधरसफासेहिं णज्जति, जया य पाणस्स य कुक्कुसावया हेट्ठीभूया सुठु य पसणं भवति, फासुयं भवति, उसिणोदगमवि जदा तिन्नि वारे उव्वत्तं ताहे कप्पइ । ५-(क) अ० चू० पृ० ११६ : मतीए कारणेहिं । (ख) हा० टी० ५० १७७ : मत्या दर्शनेन वा, 'मत्या' तद्ग्रहणादिकर्मजया। ६-जि० चू० पृ० १८५ : मतीए नाम जं कारणेहि जाणइ, तत्थ केई इमाणि तिण्णि कारणाणि भणंति, जहा जाव पुप्फोदया विरा यंति ताव मिस्सं, अण्णे पुण भणंति--जाव फुसियाणि सुक्कंति, अण्णे भणंति–जाव तंदुला सिझंति, एवइएण कालेण अचित्तं भवइ, तिण्णिवि एते अणाएसा, कह?, पुप्फोदया कयायि चिरमच्छेज्जा, फुसियाणि वरिसारत्ते चिरेण सुक्कंति, उण्हकाले लहु, कलमसालि-तंदुलावि लहुँ सिझंति, एतेण कारणेण । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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