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________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) २४८ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक ८१-८२ टि० १९६-२०० कांजी की भांति अम्लता होती थी। अधिक समय होने पर वे जल अधिक अम्ल हो जाते थे । उनमें दुर्गन्ध भी पैदा हो जाती थी। वैसे जलों से प्यास भी नहीं बुझती थी। इसलिए उन्हें चखकर लेने का विधान किया गया है । श्लोक ८१ : १९६. अचित्तं भूमि को ( अचित ख ) : दग्धस्थान आदि शस्त्रोपहत भूमि तथा जिस भूमि पर लोगों का आवागमन होता रहता है वह भूमि अचित्त होती है' । १७. यतना-पूर्वक ( जयं ग ) : यहाँ 'यत' शब्द का अर्थ अत्वरित किया है । ग १८. परिस्थापित करे ( परिवेज्जा ) : परिस्थापन ( परित्याग) दश प्रायश्चित्तों में चौथा प्रायश्चित्त है। अयोग्य या सदोष आहार आदि वस्तु आ जाए तो उसका परित्याग करना एक प्रायश्चित्त है, इसे 'विवेक' कहा जाता है। इस श्लोक में परित्याग कहाँ और कैसे करना चाहिए, परित्याग के बाद क्या करना चाहिए - इन तीन बातों का संकेत मिलता है। परित्याग करने की भूमि एकान्त और अचित्त होनी चाहिए। उस भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर उसे देख रजोहरण से साफ कर) परिस्थान करना चाहिए। परित्याग करते समय 'वोसिरामि' - छोड़ता हूँ, परित्याग करता हूं यों तीन बार बोलना चाहिए । परित्याग करने के बाद उपाश्रय में आकर प्रतिक्रमण करना चाहिए। १६. प्रतिक्रमण करे ( पडिक्कमे घ ) : प्रतिक्रमण का अर्थ है लौटना-वापस आना । प्रयोजन के बिना मुनि को कहीं जाना नहीं चाहिए। प्रयोजनवश जाए तो वापस आने पर आने-जाने में जान-अनजान में हुई भूलों की विशुद्धि के लिए ईर्यापथिकी का ( देखिए आवश्यक चूर्णि ४.६ ) ध्यान करना चाहिए । यहाँ इसी को प्रतिक्रमण कहा गया है। इलोक ८२ : २०० श्लोक ८२ : इस श्लोक से भोजन विधि का प्रारम्भ होता है । सामान्य विधि के अनुसार मुनि को गोचराय से वापस आ उपाश्रय में भोजन करना चाहिए, किन्तु जो मुनि दूसरे गाँव में भिक्षा लाने जाए और वह बालक, बूढ़ा, बुभुक्षितया तपस्वी हो या प्यास से पीड़ित हो तो १ – (क) अ० चू० पृ० १२० : अच्चित्तं झामथंडिल्लाति । (ख) जि० ० ० १०६ अवित्तं नाम (ग) हा० टी० प० १७८ : 'अचित्तं' दग्धदेशादि । (क) जि० चू० पृ० १८६ : जयं नाम अतुरियं । (ख) हा० टी० प० १७८ 'यतम्' अत्वरितम् । ३ठा० १०।७३ । ४ - विशेष स्पष्टता के लिए देखिए आयार चुला १।२,३ । ४जि० पू० पृ० १०६ ५ ६ हा० ० ० १०८ सत्योवह अचित्तं तं च आगमणवंडिलादी । Jain Education International पडिलेणागमेण पमज्जमाथि गहिया, चक्खुणा पडिमा रहरणादिना पमज्जणा। प्रतिष्ठापयेद्विपिता त्रिर्वाक्यपूर्व व्युत्सृजेत्। ७. - (क) अ० चू० पृ० १२० : पच्चागतो इरियावहियाए पडिक्कमे । (ख) जि० चू० पृ० १८६-८७ : परिटट्वेऊण उवस्सय मागंतूण ईरियावहियाए पडिक्कमेज्जा | : (ग) हा० टी० प० १७८ प्रतिष्ठाप्य वसतिमागतः प्रतिक्रामेदी पथिकाम् एतच्च बहिरागतनियमकरणसिद्धं प्रतिक्रमणमबहिरपि प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रमणनियमज्ञापनार्थमिति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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