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________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा ) २४६ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ८३ टि० २०१-२०३ उपाश्रय में ग्राने के पहले ही भोजन (कलेवा) कर सकता है । श्लोक ८२ से ८६ तक इसी आपवादिक विधि का वर्णन है । जिस गांव में वह भिक्षा के लिए जाए वहाँ साधु ठहरे हुए हों तो उनके पास जाकर आहार करना चाहिए। यदि साधु न हों तो कोष्ठक अथबा भित्तिमूल आदि हों वहाँ जाना चाहिए। यदि उनका अधिकारी हो तो वहाँ ठहरने के लिए उनकी अनुमति लेनी चाहिए। आहार के लिए उपयुक्त स्थान वह होता है, जो ऊपर से छाया हुआ और चारों ओर से संवृत हो । वैसे स्थान में ऊपर से उड़ते हुए सूक्ष्म जीवों के गिरने की संभावना नहीं रहती। आहार करने से पहले 'हस्तक' से समूचे शरीर का प्रमार्जन करना चाहिए। २०१. भित्तिमूल ( भित्तिमूलं ग): व्याख्याकारों ने इसका अर्थ दो घरों का मध्यवर्ती भाग, भित्ति का एक देश अथवा भित्ति का पाश्र्ववर्ती भाग और कुटीर या भीत किया है। श्लोक ८३ : २०२. अनुज्ञा लेकर (अणुन्नवेत्तु क): ___स्वामी से अनुज्ञा प्राप्त करने की विधि इस प्रकार है- "हे श्रावक ! तुम्हें धर्म-लाभ है। मैं मुहूर्त भर यहाँ विश्राम करना चाहता हूँ" मुनि यह कहे, किन्तु यहां खाना-पीना चाहता हूँ' यह न कहे, क्योंकि ऐसा कहने पर गृहस्थ कुतूहलवश वहाँ आने का प्रयत्न कर सकता है। अनुज्ञा देने की विधि इस प्रकार है-गृहस्थ नतमस्तक होकर कहता है-"आप चाहते हैं वैसे विश्राम की अनुज्ञा देता हूँ।" २०३. छाए हए एवं संवत स्थल में (पडिच्छन्नम्मि संवडे ख ) : जिनदास धुणि के अनुसार 'प्रतिच्छन्न' और 'संवृत'-ये दोनों शब्द स्थान के विशेषण हैं। अगस्त्य घूगि और टीका के अनुसार 'प्रतिच्छन्न' स्थान का और 'संवृत' मुनि का विशेषण है। उत्तराध्ययन (१.३५) में ये दोनों शब्द प्रयुक्त हुए हैं । शान्त्याचार्य ने इन दोनों को मुख्यार्थ में स्थान का विशेषण माना है। १-(क) अ० चू० पृ० १२० : गोतरग्गगतस्स भोत्तव्यसंभवो गामंतरं भिक्खायरियाए गतस्स काल-क्खमण-पुरिसे आसज्ज पढमालियं । (ख) जि०० पृ० १८७ : जो य सो गोयरग्गगओ भुंजइ सो अन्नं गामं गओ बालो बुढो छाआलू खमओ वा, अहवा तिसिओ तो कोई विलंबणं काऊण पाणयं पिबेज्जा, एवमादि, पढमालियं काउं, तं पुण अण्णसाधुउवस्सगऽसतीए कुछए भित्तिमूले वा समुद्दिसेज्जा। २-देखिए टिप्पण संख्या २०४ । ३-प्रश्न० (सं०) पृ० २०२ : संपमज्जिऊण ससीसं कायं । ४-अ० चू० पृ० १२० : दोण्हं घराणं अंतरं भित्तिमूलं । ५-हा० टी० ५० १७८ : 'भित्तिमूलं वा' कुड्यैकदेशादि । ६--- जि० चू० पृ० १८७ : भित्ती नाम कुडो कुड्डो। ७ -- (क) अ० चू० पृ० १२० : धम्मलाभपुव्वं तस्स त्थाणस्स पभुमणुण्णवेति --जदि ण उवरोहो एत्थ मुहुत्त वीससामि, ण भणति ___ 'समुद्दिसामि' मा कोतुहल्लेण एहिती। (ख) जि० चू० पृ० १८७ : तेण तत्थ ठायमाणेण तत्थ पहू अणुन्नवेयव्वो-धम्मलाभो ते सावगा! एत्य अहं मुहत्तागंमि विस्समामि, ण य भणयति जहा समुद्दिस्सामि आययामि वा, कोउएण पलोएहिति । (ग) हा० टी० ५० १७८ : 'अनुज्ञाप्य' सागारिकपरिहारतो विश्रमणव्याजेन तत्स्वामिनमवग्रहम् । ८-जि० चू० पृ० १८७ : पडिच्छण्णे संवुडे ठातियव्वं जहा सहसत्ति न दीसती, जहा य सागारियं दूरओ जं न पासति तहा ठातियव्वं । E-(क) अ० चू० पृ० १२० : पडिच्छण्णे थाणे संवुडो सयं जधा सहसा ण दीसति सयमावयंत पेच्छति । (ख) हा० टी० ५० १७८ : 'प्रतिच्छन्ने' तत्र कोष्ठकादौ 'संवृत' उपयुक्तः सन् । १०-उत्त० वृ० पत्र ६०,६१ : 'प्रतिच्छन्ने' उपरिप्रावरणान्विते, अन्यथा सम्पातिमसत्त्वसम्पातसम्भवात्, 'संवृते' पार्श्वत: कटकु ट्यादिना सङ्कटद्वारे अटव्यां कुडङ्गादिषु वा... ... 'संवृतो वा सकलाश्रवविरमणात् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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