________________
दसवेआलियं ( दशवकालिक )
२५० अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ८४ टि० २०४-२०५ बहत्कल्प के अनुसार मुनि का आहार-स्थल प्रतिच्छन्न-ऊपर से छाया हुआ और संवृत -पार्श्व-भाग से आवृत होना चाहिए । इस दृष्टि से 'प्रतिच्छन्न' और 'संवृत' दोनों स्थान के विशेषण होने चाहिए । २०४. हस्तक से ( हत्थगंग):
'हस्तक' का अर्थ-मुखपतिका, मुख-वस्त्रिका होता है । कुछ आधुनिक व्याख्याकार 'हस्तक' का अर्थ पूंजनी (प्रमार्जनी) करते है, किन्तु यह साधार नहीं लगता । ओघनियुक्ति आदि प्राचीन ग्रन्थों में मुख-वस्त्रिका का उपयोग प्रमार्जन बतलाया है । पात्र-केसरिका का अर्थ होता है—पात्र-मुख-वस्त्रिका-पात्र-प्रमार्जन के काम आने वाला वस्त्र-खण्ड । 'हस्तक', मुख-'वस्त्रिका' और 'मुखान्तक'-ये तीनों पर्यायवाची शब्द हैं।
श्लोक ८४: २०५, गुठली, कांटा (अद्वियं कंटओख ) :
धूर्णिकार इनका अर्थ हड्डी और मछली का कांटा करते हैं और इनका सम्बन्ध देश-काल की अपेक्षा से ग्रहण किए हुए मांस आदि से जोड़ते हैं।
अस्थिक और कंटक प्रमादवश गृहस्थ द्वारा मुनि को दिए हुए हो सकते हैं --ऐसा टीकाकार का अभिमत है। उन्होंने एक मतान्तर का भी उल्लेख किया है। उसके अनुसार अस्थिक और कंटक कारणवश गृहीत भी हो सकते हैं । किन्तु यहाँ अस्थिक और कंटक का अर्थ हड्डी और मछली का कांटा करना प्रकरण-संगत नहीं है। गोचरान-काल में आहार करने के तीन कारण बतलाए हैं --असहिष्णुता, ग्रीष्मऋतु का समय और तपस्या का पारणा । ओघनियुक्ति के भाष्यकार ने असहिष्णुता के दो कारण बतलाए हैं— भूख और प्यास" । क्लान्त होने पर मनि भूख की शांति के लिए थोड़ा-सा खाता है और प्यास की शांति के लिए पानी पीता है । यहाँ 'भुंजमाण' शब्द का अर्थ परिभोग किया जा सकता है। उसमें खाना और पीना—ये दोनों समाते हैं।
गुठली और कांटे का प्रसंग भोजन की अपेक्षा पानी में अधिक है । आयारचूला में कहा है कि आम्रातक, कपित्थ, बिजौरे, दाख, खजूर, नारियल, करीर (करील-एक प्रकार की कंटीली झाड़ी), बेर, आंवले या इमली का धोवन 'सअट्ठियं' (गुठली सहित), 'सकरणुयं' (छिलके सहित) और 'सबीयगं' (बीज सहित) हो, उसे गृहस्थ वस्त्र आदि से छानकर दे तो मुनि न ले ।
इस सूत्र के ‘सअट्ठिय' शब्द की तुलना प्रस्तुत श्लोक के 'अट्टिय' शब्द से होती है। शीलाङ्काचार्य ने 'सअट्ठिय' शब्द का अर्थ गुठली सहित किया है।
१-(क) जि० चू० पृ० १८७ : हत्थगं मुहपोत्तिया भण्णइत्ति ।
(ख) हा० टी० ५० १७८ : 'हस्तक' मुखवस्त्रिकारूपम् । २–ओ० नि० ७१२ वृ० : संपातिमसत्त्वरक्षणार्थ जल्पद्भिर्मुखे दीयते, तथा रजः-सचित्तपृथिवीकायस्तत् प्रमार्जनार्थ मुखवस्त्रिका
गृह्यते, तथा रेणुप्रमार्जनार्थं मुखवस्त्रिकाग्रहणं प्रतिपादयन्ति पूर्वर्षयः । तथा नासिकामुखं बध्नाति तथा मुखवस्त्रिकया
वसति प्रमार्जयन् येन न मुखादौ रजः प्रविशतीति । ३--ओ० नि० ६६८ वृ०। ४-(क) अ० चू० पृ० १२१ : अद्वितं कारणगहितं अणाभोगेण वा, एवं अणि मिसं । (ख) जि० चू० पृ० १८७ : जइ तस्स साहुणो तत्थ भुजमाणस्स देसकालादीणि पडुच्च गहिए मंसादीए अन्नपाणे अट्ठी कंटका
वा हुज्जा। ५-हा० टी० ५० १७८ : अस्थि कण्टको वा स्यात्, कथंचिद् गृहिणां प्रमाददोषात्, कारणगृहीते पुद्गल एवेत्यन्ये । ६--ओ० नि० गा० २५० । ७–ओ० नि० भाष्य १४६ । ८-आ० चू० १११०४। - आ० चू० १११०४ ७० : 'सास्थिक' सहास्थिना-कुलकेन यद्वर्त्तते ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org