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________________ पिडेसणा (पिण्डेषणा) २५१ आयारचूला में जिन बारह प्रकार की वनस्पति के फलों के घोवन का उल्लेख किया गया है उनमें लगभग सभी फल गुठली या बीज वाले हैं और उनके कुछ पेड़ कंटीले भी हैं। इसीलिए दाता के प्रमादवश किसी धोवन में गुठली और काँटे का रहना संभव भी है। हो सकता है ये भोजन में भी रह जाएँ। किन्तु यहाँ ये दोनों शब्द हड्डी और मत्स्य-कंटक के अर्थ में प्रयुक्त प्रतीत नहीं होते । श्लोक ८७ : २०६. श्लोक ८७ : पिछले पाँच श्लोकों (८२-८६ ) में गोचराग्र-गत मुनि के भोजन की विधि का वर्णन है। आगे के दस श्लोकों (८७-९६) में भिक्षा लेकर उपाश्रय में आहार करने की और उसकी अन्तराल - विधि का वर्णन है । इसमें सबसे पहले स्थान प्रतिलेखना की बात आती है । गृहस्थ के पास से भिक्षा लेने के बाद मुनि को उसका विशोधन करना चाहिए। उसमें जीव-जन्तु या कंटक आदि हों तो उन्हें निकाल कर अलग रख देना चाहिए । बोपनि फिकार ने भिक्षा-विशुद्धि के तीन स्थानमा शून्यगृह वह न हो तो देवकुल और वह न मिले तो उपका द्वार' । इसलिए आश्रय में प्रविष्ट होने से पहले स्थान प्रतिलेखना करनी चाहिए और प्रतिलेखित स्थान में आहार की विशुद्धि कर फिर उपाश्रय में प्रवेश करना चाहिए। प्रवेश विधि इस प्रकार है- पहले रजोहरण से पादप्रमार्जन करे, उसके बाद तीन बार 'निसीहिया' ( आवश्यक कार्य से निवृत्त होता हूँ) बोले और गुरु के सामने आते ही हाथ जोड़ 'णमो खमासमणाणं' बोले । इस सारी विधि को विनय कहा गया है। अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) इलोक ८७ टि० २०६ : उपाश्रय में प्रविष्ट होकर स्थान प्रतिलेखन कर भिक्षा की झोली को रख दें, फिर गुरु के समीप आ 'ईर्यापथिकी' सूत्र पढ़े, फिर कायोत्सर्ग ( शरीर को निश्चल बना भुजाओं को प्रलंबितकर खड़ा रहने की मुद्रा) करने के लिए 'तस्सोत्तरी करणेणं" सूत्र पढ़े, फिर कायोत्सर्ग करे । उसमें अतिचारों की क्रमिक स्मृति करे, फिर 'लोगस्स उज्जोयगरे" सूत्र का चिन्तन करें । ओघनियुक्तिकार कायोत्सर्ग में केवल अतिचारचिन्तन की विधि बतलाते है । जिनदास महत्तर अतिचार- चिन्तन के बाद 'लोगस्स' सूत्र के चिन्तन का निर्देश देते हैं । नमस्कार मंत्र के द्वारा कायोत्सर्ग को पूरा कर गुरु के पास आलोचना करे। चूर्णिकार और टीकाकार के अनुसार आलोचना करने वाला अव्याक्षिप्त-चित्त होकर ( दूसरों से वार्तालाप न करता हुआ) आलोचना करे। ओघनियुक्ति के अनुसार आचार्य व्याक्षिप्त न हों; धर्म-कथा, आहार- नीहार, दूसरे से बातचीत करने और विकथा में लगे हुए न हों तब उनके पास आलोचना करनी चाहिए । आलोचना करने से पहले यह आचार्य की अनुज्ञा ले और आचार्य अनुवादे तब आलोचना करें" जिससे भिक्षा ती हो उसी क्रम से पहली भिक्षा से प्रारम्भ कर अन्तिम भिक्षा तक जो कुछ बीता हो वह सब आचार्य को कहे। समय कम हो तो आलोचना (निवेदन) १- ओ० नि० गा० ५०३ । २- ओ० नि० गा० ५०६ । ३ - आव० ५.३ । ४-आव० २ । ५- जि० चू० पृ० १८८ । ६- ओ० नि० गा० ५१२ । ७० ० ० १ ताहे लोगस्सुजोयगर कण समारं - (क) जि० १० चू० पृ० १८८ : अव्वक्खित्तेण चेतसा नाम तमालोयंतो अण्णेण केणइ समं न उल्लावद, अवि वयणं वा अन्नस्स न देई । (ख) हा० टी० प० १७६ अन्याक्षिप्तेन चेतसा अन्यत्रोपयोग मगच्छतेत्यर्थ । ८ ६- ओ० नि० गा० ५१४ । १०- ओ० नि० गा० ५१५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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