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आमुख
'क्षुल्लक-प्राचारकथा' ( तीसरे अध्ययन ) की अपेक्षा इस अध्ययन में प्राचारकथा का विस्तार से निरूपरप हग्रा है इसलिये इसका नाम 'महाचार-कथा' रखा गया है।
"जो पुचि उद्दिट्ठो, पायारो सो अहीरणमारित्तो। सच्चेव य होई कहा, पायारकहाए महईए ॥" (नि० २४५)
तीसरे अध्ययन में केवल अनाचार का नाम-निर्देश किया गया है और इस अध्ययन में अनाचार के विविध पहलुओं को छुना गया है। प्रौदेशिक, क्रीतकृत, नित्यान, अभ्याहृत, रात्रि-भक्त और स्नान-ये अनाचार हैं ( ३.२)-यह 'क्षुल्लक-प्राचारकथा' की निरूपण-पद्धति है। 'जो निर्ग्रन्थ नित्यान, कीत, प्रौद्देशिक और पाहुत भोजन आदि का सेवन करते हैं वे जीव-वध का अनुमोदन करते हैं- यह महर्षि महावीर ने कहा है, इसलिए धर्मजीवी-निर्ग्रन्थ क्रीत, प्रौद्देशिक और आहृत भोजन-पानी का वर्जन करते हैं ( ६.४८-४६ )-यह 'महाचार-कथा' की निरूपण-पद्धति है। यह अन्तर हमें लगभग सर्वत्र मिलेगा और यह सकारण भी है। 'क्षुल्लक-पाचारकथा' की रचना निर्ग्रन्थ के अनाचारों का संकलन करने के लिये हुई है ( ३.१) और महाचार कथा की रचना जिज्ञासा का समाधान करने के लिए हुई है (६.१-४ )।
'क्षुल्लक-प्राचार-कथा' में अनाचारों का सामान्य निरूपण है । वहाँ उत्सर्ग और अपवाद की चर्चा नहीं है । 'महाचार-कथा' में उत्सर्ग और अपवाद की भी यत्र-तत्र चर्चा हुई है।
__एक अोर अठारह स्थान बाल, वृद्ध और रोगी सब प्रकार के मुनियों के लिये अनाचरणीय बतलाए हैं ( ६.६-७, नि० ६.२६७ ) तो दूसरी ओर निषद्या ( जो अठारह स्थानों में सोलहवां स्थान है ) के लिये अपवाद भी बतलाया गया है-जराग्रस्त, रोगी और तपस्वी निर्ग्रन्थ गृहस्थ के घर में बैठ सकता है ( ६.५६ ) । रोगी निर्ग्रन्थ भी स्नान न करे ( ६.६० ) । यहाँ छ8 श्लोक के निषेध को फिर दोहराया है। इस प्रकार इस अध्ययन में उत्सर्ग और अपवाद के अनेक संकेत मिलते हैं।
अठारह स्थान
हिंसा, असत्य, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य, परिग्रह और रात्रि-भोजन, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और घसकाय, अकल्प, गृहि-भाजन, पर्यक, निषद्या, स्नान और शोभा-वर्जन-ये अठारह अनाचार स्थान हैं
"वयछक्कं कायछक्कं, अकप्पो गिहिभायणं ।
पलियंकनिसेज्जा य, सिरणारणं सोहवज्जणं ॥ (नि०२६८ ) तुलना'क्षुल्लक-प्राचारकथा' में जो अनाचार बतलाए हैं उनकी 'महाचार-कथा' से तुलना यों हो सकती हैअनाचार
वरिणत स्थल
तुलनीय स्थल
(अ. ३ का श्लोक) (अ०६ का श्लोक) औद्देशिक, कोतकृत, नित्याग्र और अभ्याहृत
४४-४६ रात्रि-भोजन
२२-२५ स्नान
६०-६३ सन्निधि
१७-१८ गृहिपात्र
५०-५२ अग्नि समारम्भ
३२-३५
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