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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
अध्ययन ६ : आमुख
वरिणत स्थल (अ० ३ का श्लोक )
तुलनीय स्थल (अ० ६ का श्लोक)
५३-५५
५६-५६
अनाचार प्रासन्दी, पर्यङ्क गृहान्तर निषद्या गान उद्धर्तन ताप्तानिवृत भोजित्व मूल, शृङ्गबेर, इक्षु-खण्ड, कन्द, मूल, फल और बीज । सौवर्चल, सैन्धव, रुमालवण ; सामुद्र, पांशूक्षार और काला-ल वरण धूम-नेत्र या धूपन
२६-३१ ४०-४२
२६-२८
३२-३२ या
२१
वमन, वस्तीकर्म, विरेचन, अंजन, दतौन और गात्र-अभ्यङ्ग विभूषा
इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर जान पड़ता है कि 'क्षुल्लक-याचार' का इस अध्ययन में सहेतुक निरूपण हुआ है।
इस अध्ययन का दूसरा नाम "धर्मार्थकाम" माना जाता रहा है। इसका कोई पुष्ट अाधार नहीं मिलता किन्तु सम्भव है कि इसी अध्ययन के चतुर्थ श्लोक में प्रयुक्त 'धम्मत्थकाम' शब्द के अाधार पर वह प्रयुक्त होने लगा हो । 'धर्मार्थकाम' निर्ग्रन्थ का विशेषरण है । धर्म का अर्थ है मोक्ष । उसकी कामना करने वाला 'धर्मार्थकाम' होता है।
"धम्मस्स फलं मोक्खो, सासयम उलं सिवं अरगावाहं। तमभिप्पेया साहू, तम्हा धम्मत्थकामत्ति ॥" ( नि०२६५)
निर्ग्रन्थ धर्मार्थकाम होता है । इसीलिए उसका प्राचार-गोचर ( क्रिया-कलाप ) कठोर होता है । प्रस्तुत अध्ययन का प्रतिपाद्य यही है। इसलिए संभव है कि प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'धर्मार्थकाम" हुया हो।
प्रस्तुत अध्ययन में अहिंसा, परिग्रह आदि की परिष्कृत परिभाषाएँ मिलती हैं - (१) अहिंसा –'अहिंसा सब्बभूएसु संज मो' ( ६-८)। (२) परिग्रह–'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' ( ६.२० )। यह अध्ययन प्रत्याख्यान प्रवाद नामक नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु से उद्धृत हुआ है (नि० १.१७ )।
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