________________
पिडेसणा ( पिण्डैषणा)
२०१ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ४ टि० १६-२३ खण्ड-दोनों प्रकार से की है। निशीथ चूर्णिकार ने भी इसके दो विकल्प किये हैं।
हरिभद्र कहते हैं कि 'च' शब्द से तेजस्काय और वायुकाय का भी ग्रहण करना चाहिए। जिनदास के अनुसार दगमट्टिका के ग्रहण से अग्नि और वायु का ग्रहण स्वयं हो जाता है । अगस्त्यसिह का अभिमत है कि गमन में अग्नि की संभावना कम है और दाह के भय से उसका वर्जन हर कोई करता ही है । वायु आकाशव्यापी है, अतः उसका सर्वथा परिहार नहीं हो सकता। प्रकारान्तर से सर्वजीवों का वर्जन करना चाहिए-यह स्वतः प्राप्त है । १६. श्लोक ४-६ :
चौथे श्लोक में किस मार्ग से साधु न जाये, इसका उल्लेख है। वजित-मार्ग से जाने पर जो हानि होती है, उसका वर्णन पांचवें श्लोक में है । छठे श्लोक में पांचवें श्लोक में बताये हुए दोषों को देखकर विषम-मार्ग से जाने का पुनः निषेध किया है। यह औत्सर्गिकमार्ग है । कभी चलना पड़े तो सावधानी के साथ चलना चाहिए-यह अपवादिक-मार्ग छठे श्लोक के द्वितीय चरण में दिया हुआ है।
श्लोक ४ : २०. गड्ढे ( ओवायं क ):
जिनदास और हरिभद्र ने 'अवपात' का अर्थ 'खड्डा' या 'गड्डा' किया है । अगस्त्यसिंह ने नीचे गिरने को 'अवपात कहा है। २१. ऊबड़-खाबड़ भू-भाग ( विसमं क ) :
अगस्त्यसिंह ने खड्डा, कूप, झिरिंड (जीर्ण कूप) आदि ऊँचे-नीचे स्थान को 'विषम' कहा है । जिनदास और हरिभद्र ने निम्नोन्नत स्थान को 'विषम' कहा है। २२. कटे हुए सूखे पेड़ या अनाज के डंठल ( खाणुं क ) :
ऊपर उठे हुए काष्ठ विशेष को स्थाणु कहते हैं । २३. पंकिल मार्ग को ( विज्जलं ख ) :
पानी सूख जाने पर जो कर्दम रहता है उसे 'विजल' कहते हैं । कर्दमयुक्त मार्ग को 'विजल' कहा जाता है।
१--आ० हा० वृ० पृ० ५७३ : दगमृत्तिका चिक्खलम् अथवा दकग्रहणादप्कायः मृत्तिका ग्रहणात् पृथ्वीकायः । २-नि० चू० (७.७४) दगं पाणीयं, कोमारा-मट्टिया, अधवा उल्लिया मट्टिया। ३-हा० टी०प० १६४ : च शब्दात्तेजोबायुपरिग्रहः ।। ४-जि० चू० पु. १६६ : एगग्गहणे गहणं तज्जाईयाणमितिकाउं अगणिवाउणोवि गहिया । ५-अ० चू० पृ० १०० : गमणे अग्गिस्स मंदो संभवो, दाहभएण य परिहरिज्जति, वायुराकाशव्यापीति ण सम्वहा परिहरणमिति ____न साक्षादभिधानमिति । प्रकारवयणेण वा सव्वजीवणिकायाभिहाणं, तावमपि वज्जितो। ६- (क) जि० चू० पृ० १६६ : ओवायं नाम खड्डा, जत्थ हेठ्ठाभिमुहेहि अवयरिज्जइ ।
(ख) हा० टी० ५० १६४ : 'अवपात' गर्तादिरूपम् । ७-अ० चू० पृ० १०० : अहोपतणमोवातो । ८-अ० चू० पृ० १०० : खड्डा-कूव-झिरिंडाती णिण्णुण्णयं विसमं । ६-(क) जि० चू० पृ० १६६ : विसमं नाम निण्णुण्णयं ।
(ख) हा० टी० प० १६४ : 'विषम' निम्नोन्नतम् । १.-(क) अ० चू० पृ० १०० : णातिउच्चो उद्घट्टियदारुविसेसो खाणू ।
(ख) जि० चू० पृ० १६६ : खाणू नाम कट्ठ उद्घाहुत्तं ।
(ग) हा० टी० ५० १६४ : 'स्थाणुम्' ऊर्ध्वकाष्ठम् । ११- (क) अ० चू० पृ० १०० : विगयमात्र जतो जलं तं विज्जलं (चिक्खलो)।
(ख) जि० चू० १० १६६ : विगयं जलं जत्थ तं विजलं । (ग) हा० टी० ५० १६४ : विगतजलं कर्दमम् ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org