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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २०२ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ५-६ टि० २४-२७ २४. संक्रम. के ऊपर से ( संकमेण ग ) : जल या गड्ढे को जिसके सहारे संक्रमण-पार किया जाता है-उसे 'संक्रम' कहा जाता है। संक्रम पाषाण या काष्ठ का बना होता है। कौटिल्य अर्थशास्त्र में जल-संक्रमण के अनेक उपाय बताए गए हैं, उनमें एक स्तम्भ-संक्रम भी है। व्याख्याकार ने स्तम्भ-संक्रम का अर्थ खम्भों के आधार पर निर्मित काष्ठ फलक आदि का पुल किया है । यहाँ संक्रम का अर्थ है जल, गड्ढे आदि को पार करने के लिए काष्ठ आदि से बांधा हुआ मार्ग। संक्रम का अर्थ विकट-मार्ग भी होता है। २५. ( विज्जमाणे परक्कमे घ ) : हरिभद्र सूरि ने 'विज्जमाणे परक्कमे' इन शब्दों को 'ओवाय' आदि समस्त मार्गों के लिए अपवादस्वरूप माना है, जब कि जिनदास ने इसका संबंध केवल 'संक्रम' के साथ ही रखा है । श्लोक ६ को देखते हुए इस अपवाद का सम्बन्ध सभी मार्गों के साथ है । अतः अर्थ भी इस बात को ध्यान में रखकर किया गया है । श्लोक ५: २६. श्लोक ५: पाँचवें श्लोक में विषम-मार्ग में चलने से उत्पन्न होने वाले दोष बतलाए गए हैं । दोष दो प्रकार के होते हैं -- शारीरिक और चारित्रिक । पहले प्रकार के दोष शरीर की और दूसरे प्रकार के दोष चारित्र की हानि करते हैं। गिरने और लड़खड़ाने से हाथ, पैर आदि टूट जाते हैं यह आत्म-विराधना है-शारीरिक हानि है। बस और स्थावर जीवों की हिंसा होती है यह संयम-विराधना है—चारित्रिक हानि है । अगस्त्यसिंह के अनुसार शारीरिक दोष का विधान सूत्र में नहीं है परन्तु यह दोष वृत्ति में प्रतिभासित होता है । श्लोक ६ २७. दूसरे मार्ग के होते हुए ( सइ अन्नेण मग्गेण ग ) : ___ अन्य मार्ग हो तो विषम मार्ग से न जाया जाए । दूसरा मार्ग न होने पर साधु विषम मार्ग से भी जा सकता है, इस अपवाद की सूचना इस श्लोक के उत्तरार्द्ध में स्पष्ट है। १-(क) अ० चू० पृ० १०० : पाणिय-विसमत्थाणाति संकमणं कत्तिमसंकमो। (ख) जि० चू० पृ० १६६ : संकमिज्जति जेण संकमो, सो पाणियस्स वा गड्डाए वा भण्णइ । (ग) हा० टी० ५० १६४ : 'संक्रमण' जलगर्तापरिहाराय पाषाणकाष्ठरचितेन । २-कौटि० अर्थ० १०.२ : हस्तिस्तम्भसंक्रमसेतुबन्धनौकाष्ठवेणुसंघातैः, अलाबुचर्मकरण्डदृतिप्लवगण्डिकावेणिकाभिश्च उदकानि तारयेत् । ३-वही [व्याख्या ] : स्तम्भसंक्रमः-स्तम्भानामुपरि दारुफलकादिघटनया कल्पितः संक्रमः । ४-अ० चि० ६.१५३ : संक्रामसंक्रमो दुर्गसञ्चरे । ५-(क) हा० टी० ५० १६४ : अपवादमाह-विद्यमाने पराक्रमे अन्यमार्ग इत्यर्थः । (ख) जि० चू० पृ० १६६ : तेण संकमेण विज्जमाणे परक्कमे णो गच्छेज्जा। ६-जि० चू० पृ० १६६ : जम्हा एते दोसा तम्मा विज्जमाणे गमणपहे ण सपच्चवाएण पहेण संजएण सुसमाहिएण गंतव्वं । ७-(क) जि० चू०पू०१६६ : इदाणि आतविराहणा संजमविराहणा य दोवि भण्णंति । ते तत्थ पवडते वा पक्खलंते वा हत्थाइ लूसणं पावेज्जा, तसथावरे वा जीवे हिंसेज्जा। (ख) हा० टी० ५० १६४ : अधुना तु आत्मसंयमविराधनापरिहारमाह..."आत्मसंयमविराधनासंभवात् । -अ० चू० १० १०० तस्स पवतस्स पक्खुलंतस्स जं हत्थ-पादादिलूसणं खयकरणाति त सम्वजणप्रतीतमिति ण सुत्त, वृत्तीए विभासिज्जति। E-(क) अ० चू० पृ० १०० : सतीति विज्जमाणे । (ख) जि० चू०पृ० १६६ : 'सति' ति जदि अण्णो मग्गो अत्यि तो तेण न गच्छेज्जा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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