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पिंडेसणा ( पिण्डैषणा )
२०३ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ७ टि० २८-३१ 'अन्नेण मग्गेण' हरिभद्र सूरि के अनुसार यहाँ सप्तमी के अर्थ में तृतीया का प्रयोग है।
२८. यतनापूर्वक जाये ( जयमेव परक्कमे घ):
'जय' (यतम् ) शब्द क्रिया-विशेषण है । परक्कमे ( पराक्रमेत् ) क्रिया है । यतनापूर्वक अर्थात् आत्मा और संयम की विराधना का परिहार करते हुए चले । गर्ताकीर्ण आदि मार्गों से जाने का निषेध है, पर यदि अन्य मार्ग न हो तो गर्ताकीर्ण आदि मार्ग से इस प्रकार जाये कि आत्म-विराधना और संयम-विराधना न हो । २६. अगस्त्य चूणि में छठे श्लोक के पश्चात निम्न श्लोक आता है :
चलं कटू सिलं वा वि, इझालं वा वि संकमो।। न तेण भिक्खू गच्छेज्जा, दिट्रो तत्थ असंजमो॥
इसका अर्थ है हिलते हुए काष्ठ, शिला, ईंट एवं संक्रम पर से साधु न जाए क्योंकि ज्ञानियों ने वहाँ असंयम देखा है ।
चूणिकार के अनुसार दूसरी परम्परा के आदर्शों में यह श्लोक यहाँ नहीं है, आगे है ; किन्तु उपलब्ध आदर्शों में यह श्लोक नहीं मिलता । जिनदास और हरिभद्र की व्याख्या के अनुसार ६४ वें श्लोक के पश्चात् इसी आशय के दो श्लोक उपलब्ध होते हैं -
होज्ज कट्ठ सिलं वावि, इट्टालं वावि एगया। ठवियं सकमाए, तं च होज्ज चलाचलं ॥६५॥ ण तेण भिक्खू गच्छेज्जा, दिट्ठो तत्थ असंजमो । गंभीरं झुसिर चेव, सव्विदिए समाहिए ॥६६॥
श्लोक ७: ३०. श्लोक ७ :
चलते समय साधु किस प्रकार पृथ्वीकाय के जीवों की यतना करे-इसका वर्णन इस श्लोक में है। ३१. सचित्त-रज से भरे हुए पैरों से ( ससरक्खेहि पाहि ग )
जिनदास और हरिभद्र ने इसका अर्थ किया है-सचित्त पृथ्वीकाय के रज-कण से गुण्डित पैरों से। अगस्त्यसिंह स्थविर ने राख-कण जैसे सूक्ष्म रज-कणों को 'ससरक्ख' माना है तथा 'पाय' शब्द को जाति में एकवचन माना है। 'सस रक्खेहि' शब्द की विशेष व्याख्या के लिए देखिए ४.१८ का टिप्पण नं०६६ ।
१-हा० टी० ५० १६४ : 'सति-अन्येन' इति–अन्यस्मिन् समादौ 'मार्गेण' इति मार्गे, छान्दसत्वात्सप्तम्यर्थे तृतीया। २-(क) अ० चू० पृ० १०० : असति जयमेव ओवातातिणा परक्कमे । (ख) जि. चू० पृ० १६६ : जयभेव परक्कमे णाम जति अण्णो मग्गो नत्थि ता तेणवि य पहेण गच्छेज्जा जहा आयसंजमविराहणा
ण भव। (ग) हा०टी०प०१६४ : असति त्वन्यस्मिन्मार्गे तेनैवावपातादिना""....."यतमात्मसंयमविराधनापरिहारेण यायादिति ।
यतमिति क्रियाविशेषणम् । ३-अ० पू० पृ० १०० : अयं केसिंचि सिलोगो उरि भणिहिति । ४-(क) जि० चू० पृ० १६६ : ससरखेहि-सचित्तरयाइण्णे हि पाएहि ।
(ख) हा० टी० ५० १६४ : सचित्तपृथिवीरजोगुण्डिताभ्यां पादाभ्याम् । ५---१० चू० पृ० १०१ : 'ससरक्खेण' सरक्खो---सुसण्हो छारसरिसो पुढविरतो, सह सरक्खेण सस रक्खो तेण पाएण, एगवयणं
जातीए पयत्यो।
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