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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २०० अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ३ टि० १६-१८ यदि चलते समय दृष्टि को बहुत दूर डाला जाए तो सूक्ष्म शरीर वाले जीव देखे नहीं जा सकते और उसे अत्यन्त निकट रखा जाए तो सहसा पैर के नीचे आने वाले जीवों को टाला नहीं जा सकता, इसलिए शरीर-प्रमाण क्षेत्र देखकर चलने की व्यवस्था की गई है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'जुगमादाय' ऐसा पाठ-भेद माना है। उसका अर्थ है-युग को ग्रहण कर अर्थात् युग जितने क्षेत्र को लक्षित कर- भूमि को देखता हुआ चले ।। 'सव्वतो जुगमादाय' इस पाठ-भेद का निर्देश भी दोनों धर्णिकार करते हैं। इसका अर्थ है थोड़ी दूर चलकर दोनों पाश्वों में और पीछे अर्थात् चारों ओर युग-मात्र भूमि को देखना चाहिए। १६. बीज, हरियाली ( बीयहरियाई ) : अगस्त्यसिंह स्थविर की चूणि के अनुसार बीज शब्द से वनस्पति के दश प्रकारों का ग्रहण होता है। वे ये हैं-मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज । 'हरित' शब्द के द्वारा बीजरह वनस्पति का निर्देश किया है । जिनदास महत्तर की भूणि के अनुसार 'हरित' शब्द वनस्पति का सूचक है। १७. प्राणी ( पाणे" ): प्राण शब्द द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों का संग्राहक है । १८. जल तथा सजीव-मिट्टी ( दगमट्टियं ) : 'दगमट्टिय' शब्द आगमों में अनेक जगह प्रयुक्त है । अखण्ड-रूप में यह भीगी हुई सजीव मिट्टी के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। आयारघूला (११२,४२) में यह शब्द आया है । वृत्तिकार शीलाङ्काचार्य ने यहाँ इसका अर्थ उदक-प्रधान मिट्टी किया है। पूर्णिकार और टीकाकार इस श्लोक तथा इसी अध्ययन के पहले उद्देशक के २६ वें श्लोक में आए हुए 'दग' और 'मट्टिया' इन दोनों शब्दों को अलग-अलग ग्रहण कर व्याख्या करते हैं । टीकाकार हरिभद्र ने अपनी आवश्यक वृत्ति में इनकी व्याख्या अखंड और १-(क) अ० चू० पृ० ६९ : 'सुहुमसरीरे दूरतो ग पेच्छति' त्ति न परतो, 'आसण्णो न तरति सहसा वट्टावेतुं' ति ण आरतो। (ख) जि० चू० पृ० १६८ : दूरनिपायदिट्ठी पुण विप्पगिट्ट सुहुमसरोरं वा सत्तं न पासइ, अतिसन्निविट्ठदिठिवि सहसा दट्टण ण सक्केइ पादं पडिसाहरिडं । २-अ० चू० पृ० ६६ : अहवा "पुरतो जुगमादाय" इति चक्खुसा तावतियं परिगिज्झ पेहमाण इति । ३-(क) अ० चू० पृ० ६६ : पाढंतरं वा "सव्यतो जुगमादाय।" (ख) जि० चू० पृ० १६८ : अन्ने पढंति— 'सव्वत्तो जुगमायाए' नातिदूरं गंतूणं पासओ पिटुओ य निरिक्खियन्वं । ४--(क) अ० चू० पृ० ६६ : बीयवयणेण वा दस भेदा भणिता। (ख) जि० चू० पृ० १६८ : बीयगहणेण बीयपज्जवसाणस्स दसभेवभिण्णस्स वणप्फइकायस्स गहणं कयं । ५-अ० चू० पृ०६९ : हरितग्गहणेण जे बीयरहा ते भणिता। ६-जि० चू० पृ० १६८ : हरियगहणेण सव्ववणप्फई गहिया। ७-(क) अ० चू०प०६९ : 'पाणा' बेईवियादितसा। (ख) जि० चू० पृ० १६८ : पाणग्गहणणं बेइंदियाईणं तसाणं गहणं । (ग) हा० टी० ५० १६४ : 'प्राणिनो' द्वीन्द्रियादीन् । --आ० चू० १।२।४२ वृ० : उदकप्रधाना मृत्तिका उपकमृत्तिकेति । t-(क) अ० चू० पृ० ६६ : ओसादि भेदं पाणितं दगं, मट्टिया-णवगणिवेसातिपुढविक्कातो । (ख) जि० चू० पृ० १६६ : दगग्गहणेण आउक्काओ सभेदो गहिओ, मट्टियागहणेणं ज्जो पुढविक्काओ अडवीओ आणिो सन्निवेसे वा गामे वा तस्स गहणं । (ग) हा० टी०प० १६४ : 'उदकम्' अप्कायं 'मृत्तिका च' पृथिवीकार्य । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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