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पिंडेसणा ( पिण्डेषणा)
१६६ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ३ टि० १३-१५ भावार्थ यह है कि चलते समय मुनि चित्त में आर्तध्यान न रखे । उसकी चित्तवृत्ति शब्दादि विषयों में आसक्त न हो तथा पैर आदि उठाते समय वह पूरा उपयोग रखता हुआ चले ।
गृहस्थों के यहाँ साधु को प्रिय शब्द, रूप, रस और गन्ध का संयोग मिलता है। ऐसे संयोग की कामना अयवा आसक्ति से साधू गमन न करे। वह केवल आहार गवेषणा की भावना से गमन करे ।
इस सम्बन्ध में टीकाकार ने वत्स और वणिक् वधू के दृष्टान्त की ओर संकेत किया है । जिनदास ने गोचराग्र शब्द की व्याख्या में इस दृष्टान्त का उपयोग किया है । हमने इसका उपयोग प्रथम श्लोक में आये हुए 'अमुच्छिओ' शब्द की व्याख्या में किया है। पूरा दृष्टान्त इस प्रकार मिलता है :
“एक वणिक् के घर एक छोटा बछड़ा था। वह सब को बहुत प्रिय था। घर के सारे लोग उसकी बहुत सार-सम्हाल करते थे। एक दिन बणिक के घर जीमनवार हुआ। सारे लोग उस में लग गये । बछड़े को न घास डाली गई और न पानी पिलाया गया । दुपहरी हो गई। वह भूख और प्यास के मारे रंभाने लगा। कुल-वधु ने उसको सुना। वह घास और पानी लेकर गई । घास और पानी को देख बछड़े की दृष्टि उन पर टिक गई । उसने कुल-वधू के बनाव और शृङ्गार की ओर ताका तक नहीं। उसके मन में विचार तक नहीं आया कि वह उसके रूप-रंग और शृङ्गार को देखे ।"
दृष्टान्त का सार यह है कि बछड़े की तरह मुनि भिक्षाटन की भावना से अटन करे। रूप आदि को देखने की भावना से चंचलचित्त हो गमन न करे।
शलोक३: १३. श्लोक ३:
द्वितीय श्लोक में भिक्षा के लिए जाते समय अव्याक्षिप्त चित्त से और मंद गति से चलने की विधि कही है। इस श्लोक में भिक्षु किस प्रकार और कहाँ दृष्टि रख कर चले इसका विधान है। १४. आगे ( पुरओ + ):
पूरत:- अग्रतः-आगे के मार्ग को । चौथे चरण में 'य'--'च' शब्द आया है । जिनदास का कहना है कि 'च' का अर्थ है --कुत्ते आदि से रक्षा की दृष्टि से दोनों पाव और पीछे भी उपयोग रखना चाहिए। १५. युग-प्रमाण भूमि को ( जुगमायाएक महिल ) :
ईर्या-समिति की यतना के चार प्रकार हैं । यहाँ द्रव्य और क्षेत्र की यतना का उल्लेख किया गया है । जीव-जन्तुओं को देखकर चलना यह द्रव्य-यतना है । युग-मात्र भूमि को देखकर चलना यह क्षेत्र-यतना है।
जिनदास महत्तर ने युग का अर्थ 'शरीर' किया है । शान्त्याचार्य ने युग-मात्र का अर्थ चार हाथ प्रमाण किया है। युग शब्द का लौकिक अर्थ है.---.गाड़ी का जुआ । वह लगभग साढ़े तीन हाथ का होता है। मनुष्य का शरीर भी अपने हाथ से इसी प्रमाण का होता है; इसलिए 'युग' का सामयिक अर्थ शरीर किया है।
यहाँ युग शब्द का प्रयोग दो अर्थों की अभिव्यक्ति के लिए है । सूत्रकार इसके द्वारा ईर्या-समिति के क्षेत्र-मान और उसके संस्थान इन दोनों की जानकारी देना चाहते हैं।
युग शब्द गाड़ी से सम्बन्धित है । गाड़ी का आगे का भाग संकड़ा और पीछे का भाग चौड़ा होता है। ईर्या-समिति से चलने वाले मुनि की दृष्टि का संस्थान भी यही बनता है।
१-जि० चू० पृ० १६८ : पुरओ नाम अग्गओ.......""चकारेण य सुणमादीण रक्खणट्ठा पासओवि पिठुओवि उवओगो कायक्वो २-उत्त० २४.६ : दवओ खेत्तओ चेव, कालओ भावओ तहा।
जायणा चउन्विहा वुत्ता, तं मे कित्तयओ सुण ॥ ३- उत्त० २४.७ : दवओ चक्खुसा पेहे, जुगमित्तं च खेत्तओ। ४–जि० चू० पृ० १६८ : जुगं सरीरं भण्णइ। ५-उत्त० २४.७ वृ० ००: युगमात्रं च चतुर्हस्तप्रमाणं प्रस्तावात क्षेत्र। ६-(क) अ० चू० पृ० ६९ : जुगमिति बलिवद्दसंदाणणं सरीरं वा तावम्मत्तं पुरतो, अंतो संकुयाए बाहि वित्थडाए दिट्ठीए,
(ख) जि० चू० पृ० १६८ : तावमेत्तं पुरओ अंतो संकुडाए बाहि वित्थडाए सगडुद्धिसंठियाए दिट्ठीए।
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