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दसवेआलियं ( दशवैकालिक )
१९८ अध्ययन ५ (प्र० उ० ) : श्लोक २ टि० ८-१२
८. वह ( से क ):
हरिभद्र कहते हैं 'से' अर्थात् जो असंभ्रांत और अमूछित है वह मुनि' । जिनदास लिखते हैं 'से' शब्द संयत-विरत-प्रतिहतप्रत्याख्यात-पापकर्मा भिक्षु का संकेतक है । यह अर्थ अधिक संगत है क्योंकि ऐसे मुनि की भिक्षा-चर्या की विधि का ही इस अध्ययन में वर्णन है । अगस्त्यसिंह के अनुसार 'से' शब्द वचनोपन्यास है। ६. मुनि ( मुणी ख ) :
मुनि और ज्ञानी एकार्थक शब्द है। जिनदास के अनुसार मुनि चार प्रकार के होते हैं-नाम-मुनि, स्थापना-मुनि, द्रव्य-मुनि और भाव-मुनि । उदाहरण के लिए जो रत्न आदि की परीक्षा कर सकता है वह द्रव्य-मुनि है। भाव-मुनि वह है जो संसार के स्वभाव - असली स्वरूप को जानता हो। इस दृष्टि से सम्यग्दृष्टि साधु और श्रावक दोनों भाव-मुनि होते हैं। इस प्रकरण में भाव-साधु का ही अर्थ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उसी की गोचर्या का यहाँ वर्णन है । १०. धीमे-धीमे ( मंदंग ) :
असंभ्रांत शब्द मानसिक अवस्था का द्योतक है और 'मन्द' शब्द चलने की त्रिया (चरे) का विशेषण । साधु जैसे चित्त से असंभ्रांत हो- क्रिया करने में त्वरा न करे वैसे ही गति में मन्द हो धीमे-धीमे चले। जिनदास लिखते हैं -मन्द चार तरह के होते हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-मन्द । उनमें द्रव्य-मन्द उसे कहते है जो शरीर से प्रतनु होता हैं । भाव-मन्द उसे कहते हैं जो अल्पबुद्धि हो । यहाँ तो गति-मन्द का अधिकार है। ११. अनुद्विग्न ( अणुग्विग्गो घ):
अनुद्विग्न का अर्थ है--परीषह से न डरने वाला, प्रशान्त । तात्पर्य यह है—भिक्षा न मिलने या मनोनुकूल भिक्षा न मिलने के विचार से व्याकुल न होता हुआ तथा तिरस्कार आदि परीषहों की आशंका से क्षुब्ध न होता हुआ गमन करे । १२. अव्याक्षिप्त चित्त से ( अव्वक्खित्तेण चेयसा घ):
जिनदास के अनुसार इसका अर्थ है---आर्तध्यान से रहित अंत:करण से, पैर उठाने में उपयोग युक्त होकर । हरिभद्र के अनुसार अव्याक्षिप्त चित्त का अर्थ है वत्स और वणिक् पत्नी के दृष्टान्त के न्याय से शब्दादि में अंत:करण को नियोजित न करते हुए, एषणा समिति से युक्त होकर।
१–हा० टी०प० १६३ : 'से' इत्यसंभ्रांतोऽमूच्छितः । २—जि० चू० पृ० १६७ : 'से' त्ति निद्देसे, कि निद्दिसति ?, जो सो संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मो भिक्खू तस्स
निद्देसोत्ति। ३-अ० चू० पृ० ६६ : से इति वयणोवण्णासे । ४ – (क) अ० चू० पृ० ६६ : मुणी विण्णाणसंपण्णो, दव्वे हिरण्णादिमुणतो, भावमुणी विदितसंसारसब्भावो साधू । (ख) जि० चू० पृ० १६८ : मुणोणाम णाणित्ति वा मुणित्ति वा एगट्ठा, सो य मुणी चउव्विहो भणिओ,... - दव्वमुणी जहा
रयणपरिक्खगा एवमादि, भावमुणो जहा संसारसहावजाणगा साहुणो सावगा वा, एत्य साहूहिं अधिगारो। (ग) हा० टी० ५० १६३ : मुनिः - भावसाधुः ।। ५ (क) अ० चू०पू०६६ : मंद असिग्घं । असंभंत-मंदविसेसो...असंभंतो चेयसा, मंदो क्रियया।
(ख) हा० टी० ५० १६३ : 'मंद' शनैः शनैर्न द्र तमित्यर्थः । ६ जि० चू० पृ० १६८ : मंदो चव्विहो .... 'दव्वमंदो जो तणुयसरीरो एवमाइ. भावमंदो जस्स बुद्धी अप्पा एवमादी .....इइ
पुण गतिमदेण अहिगारो। ७ - (क) अ० चूपृ० ६६ : अणुविग्गो अभीतो गोयरगताण परीसहोवसग्गाण।
(ख) जि० चू० पृ० १६८ : उब्विग्गो नाम भीतो, न उब्विग्गो अणुविग्गो, परीसहाणं अभीउत्ति वुत्तं भवति ।
(ग) हा० टी० ५० १६३ : 'अनुद्विग्नः' प्रशान्तः परीषहादिभ्योऽबिभ्यत् । ८-जि० चू० पृ० १६८ : अव्वक्खित्तेण चेतसा नाम णो अट्टज्माणोवगओ उक्खेवादिणुवउत्तो । ६ हा० टी० ५० १६३ : 'अव्याक्षिप्तेन चेतसा' वत्सवणिग्जायादृष्टान्तात् शब्दादिष्वगतेन 'चेतसा' अन्तःकरणेन एषणोपयुक्तेन ।
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