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पिंडेसणा ( पिण्डैषणा)
१६७ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक २ टि० ६-७ आदि जनपदों में चावल का भोजन प्रधान रहा है। इसलिए 'भक्त' शब्द का प्रधान अर्थ चावल आदि खाद्य बन गया। कौटिल्य अर्थशास्त्र की व्याख्या में 'भक्त' का अर्थ तण्ड्रल आदि किया है।
श्लोक २: ६. श्लोक २:
आहार की गवेषणा के लिए जो पहली क्रिया करनी होती है वह है चलना। गवेषणा के लिए स्थान से बाहर निकल कर साधु किस प्रकार गमन करे और कैसे स्थानों का वर्जन करता हुआ चले, उसका वर्णन इस इलोक से १५ वें श्लोक तक में आया है। ७. गोचरान के लिए निकला हुआ ( गोयरग्गगो ख):
भिक्षा-चर्या बारह प्रकार के तपों में से तीसरा तप है। 'गोचराम' उसका एक प्रकार है। उसके अनेक भेद होते हैं। 'गोचर' शब्द का अर्थ है गाय की तरह चरना-भिक्षाटन करना। गाय अच्छी-बुरी घास का भेद किए बिना एक ओर से दूसरी
ओर चरती चली जाती है। वैसे ही उत्तम, मध्यम और अधम कुल का भेद न करते हुए तथा प्रिय-अप्रिय आहार में राग-द्वेष न करते हुए जो सामुदानिक भिक्षाटन किया जाता है वह गोचर कहलाता है ।
पूर्णिकारद्वय लिखते हैं : गोचर का अर्थ है भ्रमण। जिस प्रकार गाय शब्दादि विषयों में गृद्ध नहीं होती हुई आहार ग्रहण करती है उसी प्रकार साधु भी विषयों में आसक्त न होते हुए सामुदानिक रूप से उद्गम, उत्पाद और एषणा के दोषों से रहित भिक्षा के लिए भ्रमण करते हैं । यही साधु का गोचरान है।
गाय के चरने में शुद्धाशुद्ध का विवेक नहीं होता। मुनि सदोष आहार को वर्ज निर्दोष आहार लेते हैं, इसलिए उनकी भिक्षा-चर्या साधारण गोचर्या से आगेब ढ़ी हुई ---विशेषता वाली होती है । इस विशेषता की ओर संकेत करने के लिए ही गोचर के बाद 'अग्र' शब्द का प्रयोग किया गया है। अथवा गोचर तो चरकादि अन्य परिव्राजक भी करते हैं किन्तु आधाकर्मादि आहार ग्रहण न करने से ही उसमें विशेषता आती है । श्रमण निर्ग्रन्थ की चर्या ऐसी होती है अत: यहाँ अग्र-प्रधान शब्द का प्रयोग है।
१-कौटि० अर्थ० अ० १० प्रक० १४८-१४६ : भक्तोपकरणं-( व्याख्या ) भक्तं तण्डुलादि उपकरणं वस्त्रादि च । २-उत्त० ३०.८ : अणसणमूणोयरिया भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ।
कायकिलेसो संलोणया य बज्झो तवो होइ॥ ३-उत्त० ३०.२५ : अट्ठविहगोयरग्गं तु तहा सत्तेव एसणा।
अभिग्गहा य जे अन्ने भिक्खायरियमाहिया ।। ४- उत्त० ३०.१६ : पेडा य अद्धपेडा गोमुत्तिपयंगवीहिया चेज।
सम्बुक्कावट्टाययगन्तुंपच्चागया छट्ठा॥ ५-हा० टी०प०१८ : गोचरः सामयिकत्वाद् गोरिव चरणं गोचरोऽन्यथा गोचारः.... " गौश्चरत्येवमविशेषेण साधुनाऽप्यटितव्यं,
न विभवमङ्गीकृत्योत्तमाधममध्यमेषु कुलेष्विति, वणिग्वत्सकदृष्टान्तेन वेति । ६-(क) अ० चू० पृ०६६ : गोरिव चरणं गोवरो, तहा सद्दादिसु अमुच्छितो जहा सो वच्छगो। (ख) जि० चू० पृ० १६७-६८ : गोयरो नाम भ्रमणं..... जहा गावीओ सदादिसु विसएसु असज्जमाणीओ आहारमाहारेंति,
विट्ठतो वच्छओ"एवं साधुणावि विसएसु असज्जमाणेण समुदाणे उग्गमउप्पायणासुद्ध निवेसियबुद्धिणा अरत्तदुट्टण
भिक्खा हिंडियव्वत्ति। (ग) हा० टी०प० १६३ : गोरिव चरणं गोचरः-उत्तमाधममध्यमकुलेष्वरक्तद्विष्टस्य भिक्षाटनम् । ७-(क) अ० चू०पू० ६६ : गोयरं अग्गं गोतरस्स वा अग्गं गतो, अग्गं पहाणं । कहं पहाणं? एसणादिगुणजुतं, ण उ चरगादीण
अपरिक्खिते सणाणं । (ख) जि० चू० पृ० १६८ : गोयरो चेव अग्गं अगं तंमि गओ गोयरग्गगओ, अग्गं नाम पहाणं भण्णइ, सो य गोयरो साहणमेव
पहाणो भवति, न उ चरगाईणं आहाकम्मदेसियाइ जगाणंति । (ग) हा० टी०प० १६३ : अग्रः-प्रधानोऽभ्याहृताधाकर्माविपरित्यागेन ।
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