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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १६६ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक १ टि० ३-५ ३. असंभ्रांत ( असंभंतो ख ): भिक्षा-काल में बहुत से भिक्षाचर भिक्षा के लिए जाते हैं। मन में ऐसा भाव हो सकता है कि उनके भिक्षा लेने के बाद मुझे क्या मिलेगा ? मन की ऐसी दशा से गवेषणा के लिए जाने में शीघ्रता करना संभ्रान्त वृत्ति है। ऐसी संभ्रान्त दशा में भिक्षु त्वरा--शीघ्रता करने लगता है। त्वरा से प्रतिलेखन में प्रमाद होता है। ईर्या समिति का शोधन नहीं होता। उचित उपयोग नहीं रह पाता। ऐसे अनेक दोषों की उत्पत्ति होती है। अतः आवश्यक है कि भिक्षा-काल के समय भिक्षु असंभ्रान्त रहे अर्थात् अनाकुल भाव से यथा उपयोग भिक्षा की गवेषणा के लिए जाए। ४. अमूच्छित ( अमुच्छिओख): भिक्षा के समय संयम-यात्रा के लिए भिक्षा की गवेषणा करना विहित अनुष्ठान है। आहार की गवेषणा में प्रवृत्त होते समय भिक्षु की वृत्ति मूरिहित होनी चाहिए । मूर्छा का अर्थ है-मोह, कालसा या आसक्ति । जो आहार में गृद्धि या आसक्ति रखता है, वह मूच्छित होता है। जिसे भोजन में मूर्छा होती है वही संभ्रान्त बनता है। यथा-लब्ध भिक्षा में संतुष्ट रहने वाला संभ्रान्त नहीं बनता । गवेषणा में प्रवृत्त होने के समय भिक्षु की चित्त-वृत्ति मूर्छारहित हो । वह अच्छे भोजन की लालसा या भावना से गवेषणा में प्रवृत्त न हो । जो ऐसी भावना से गवेषणा करता है उसकी भिक्षा-चर्या निर्दोष नहीं होती। भिक्षा के लिए जाते समय विविध प्रकार के शब्द सुनने को मिलते हैं और रूप देखने को मिलते हैं। उनकी कामना से भिक्षु आहार की गवेषणा में प्रवृत्त न हो। वह अमूच्छित रहते हुए अर्थात् आहार तथा शब्दादि में मूर्छा नहीं रखते हुए केवल आहार-प्राप्ति के अभिप्राय से गवेषणा करे, यह उपदेश है। अमूर्छाभाव को समझने के लिए एक दृष्टान्त इस प्रकार मिलता है : एक युवा वणिक्-स्त्री अलंकृत, विभूषित हो, सुन्दर वस्त्र धारण कर गोवत्स को आहार देती है । वह ( गोवत्स ) उसके हाथ से उस आहार को ग्रहण करता हुआ भी उस स्त्री के रंग, रूप, आभरणादि के शब्द, गंध और स्पर्श में मूच्छित नहीं होता है। ठीक इसी प्रकार साधु विषयादि शब्दों में अमूच्छित रहता हुआ आहारादि की गवेषणा में प्रवृत्त हो । ५. भक्त-पान (भत्तपाणं घ ) : ___जो खाया जाता है वह 'भक्त' और जो पीया जाता है वह 'पान' कहलाता है। 'भक्त' शब्द का प्रयोग छ8 अध्ययन के २२ वें श्लोक में भी हुआ है। वहाँ इसका अर्थ 'बार' है। यहाँ इसका अर्थ तण्डुल आदि आहार है। पूर्व-काल में बिहार १-(क) अ० चू० पृ०६६ : असंभंतो 'मा वेला फिट्टिहिति, विलुप्पिहिति वा भिक्खयरेहिं भेक्खं एतेण अत्येण असंभंतो। (ख) जि०चू०पृ०१६६ : असंभंतो नाम सव्वे भिक्खायरा पविट्ठा तेहिं उञ्छिए भिक्खं न लभिस्सामित्तिकाउंमा तूरेज्जा, तूरमाणो ___य पडिलेहणापमादं करेज्जा, रियं वा न सोधेज्जा, उवयोगस्स ण ठाएज्जा, एवमादी दोसा भवन्ति, तम्हा असंभन्तेण पडिलेहणं काऊण उवयोगस्स ठायित्ता अतुरिए भिक्खाए गंतव्वं । (ग) हा० टी०प० १६३ : 'असंभ्रान्तः' अनाकुलो यथावदुपयोगादि कृत्वा, नान्यथेत्यर्थः । २--(क) अ० चू० पृ० ६६ : अमुच्छितो अमूढो भत्तगेहीए सद्दातिसु य । (ख) जि० चू० पृ० १६६ : 'मूर्छा मोहसमुच्छाययोः'"न मूच्छितः अमूच्छितः, अमूच्छितो नाम समुयाणे मुच्छं अकुब्वमाणो सेसेसु य सद्दाइविसएस। (ग) हा० टी०प० १६३ : 'अमूच्छितः' पिण्डे शब्दादिषु वा अगृद्धो, विहितानुष्ठानमितिकृत्वा, न तु पिण्डावावेवासक्त इति । ३-(क) जि० चू० पृ० १६७-६८ : दिढतो वच्छओ वाणिगिणीए अलंकियविभूसियाए चारुवेसाए वि गोभत्तादी आहारं वलयंतीति तमि गोभत्तादिम्मि उवउत्तो ण ताए इत्थियाए रूवेण वा तेसु वा आभरणसद्देसु ण वा गंधफासेस मुच्छिओ, एवं साधुणावि विसएसु असज्जमाणेण..... "भिक्खाहिडियव्यत्ति । ४-अ० चू० पृ० ६६ : भत्त-पाणं भजति खुहिया तमिति भत्तं, पीयत इति पाणं, भत्तपाणमिति समासो। ५-एगभत्तं च भोयणं । ६-हा० टी० ५० १६३ : 'भक्तपानं' यतियोग्यमोदनारनालादि । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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