SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ टिप्पण : अध्ययन ५ (प्रथम उद्देशक) श्लोक १ : १. श्लोक १: प्रथम श्लोक में भिक्षु को यथासमय मिक्षा करने की आज्ञा दी गई है । भिक्षा-काल के उपस्थित होने के समय भिक्षु की वृत्ति कैसी रहे, इसका भी मार्मिक उल्लेख इस श्लोक में है। उसकी वृत्ति 'संभ्रम' और ' मूर्छा' से रहित होनी चाहिए । इन शब्दों की भावना का स्पष्टीकरण यथास्थान टिप्पणियों में आया है। २. भिक्षा का काल प्राप्त होने पर ( संपत्ते भिक्खकालम्मिक ) : जितना महत्त्व कार्य का होता है, उतना ही महत्त्व उसकी विधि का होता है । बिना विधि से किया हुआ कार्य फल-दायक नहीं होता। काल का प्रश्न भी कार्य-विधि से जुड़ा हुआ है। जो कोई भी कार्य किया जाये वह क्यों किया जाये ? कब किया जाये? कैसे किया जाये ? ये शिष्य के प्रश्न रहते हैं। आचार्य इनका समाधान देते हैं-अमुक कार्य इसलिए किया जाये, इस समय में किया जाये और इस प्रकार किया जाये । यह उद्देश्य, काल और विधि का ज्ञान कार्य को पूर्ण बनाता है। इस श्लोक में भिक्षा-काल का नामोल्लेख मात्र है। काल-प्राप्त और अकाल भिक्षा का विधि-निषेध इसी अध्ययन के दूसरे उद्देशक के चौथे, पांचवें और छ8 श्लोक में मिलता है। वहाँ भिक्षा-काल में भिक्षा करने का विधान और असमय में भिक्षा के लिए जाने से उत्पन्न होने वाले दोषों का वर्णन किया गया है। प्रश्न यह है कि भिक्षा का काल कौन-सा है ? सामाचारी अध्ययन में बतलाया गया है कि मुनि पहले प्रहर में स्वाध्याय करे, दूसरे में ध्यान करे, तीसरे में भिक्षा के लिए जाय और चौथे प्रहर में फिर स्वाध्याय करे। उत्सर्ग-विधि से भिक्षा का काल तीसरा प्रहर ही माना जाता रहा है । “एगभत्तं च भोयणं" के अनुसार भी भिक्षा का काल यही प्रमाणित होता है; किन्तु यह काल-विभाग सामयिक प्रतीत होता है । बौद्ध-ग्रन्थों में भी भिक्षु को एकभक्त-भोजी कहा है तथा उनमें भी यथाकाल भिक्षा प्राप्त करने का विधान है। प्राचीन काल में भोजन का समय प्रायः मध्याह्नोत्तर था। संभवतः इसीलिए इस व्यवस्था का निर्माण हुआ हो अथवा यह व्यवस्था विशेष अभिग्रह (प्रतिज्ञा) रखनेवाले मुनियों के लिए हुई हो। कैसे ही हो, पर एक बार भोजन करने वालों के लिए यह उपयुक्त समय है। इस औचित्य से इसे भिक्षा का सार्वत्रिक उपयुक्त समय नहीं माना जा सकता । सामान्यतः भिक्षा का काल वही है, जिस प्रदेश में जो समय लोगों के भोजन करने का हो। इसके अनुसार रसोई बनने से पहले या उसके उठने के बाद भिक्षा के लिए जाना भिक्षा का अकाल है और रसोई बनने के समय भिक्षा के लिए जाना भिक्षा का काल है। १- (क) अ० चू० : भिक्खाणं समूहो 'भिक्षादिभ्योऽण' [पाणि० ४.२.३८] इति भैक्षम्, भेक्खस्स कालो तम्मि संपत्ते । (ख) जि० चू० पृ० १६६ : भिक्खाए कालो भिक्खाकालो तंमि भिक्खकाले संपत्ते । (ग) हा० टी० ५० १६३ : 'संप्राप्ते' शोभनेन प्रकारेण स्वाध्यायकरणादिना प्राप्ते 'भिक्षाकाले' भिक्षासमये, अनेनासंप्राप्ते भक्तपानंषणाप्रतिषेधमाह, अलाभाज्ञाखण्डनाभ्यां दृष्टादृष्टविरोधादिति । २- उत्त० २६.१२ : पढमं पोरिसि सज्झायं, बीयं झाणं झियायई। तईयाए भिक्खायरियं, पुणो चउत्थीइ सज्झायं ॥ ३- उत्त० ३०.२१ बृ० वृ० : उत्सर्गतो हि तृतीयपौरुष्यामेव भिक्षाटनमनुज्ञातम् । ४-दश० ६.२२ । ५-(क) वि० पि० : महावग्ग पालि ५.१२ । (ख) The Book of the Gradual Sayings Vol. IV. VIII. V. 41 page 171. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy