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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १६४ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ६८-१०० ९८-अरसं विरसं वा वि अरसं विरसं वाऽपि, ६८-६६–मुधाजीवी२२२ मुनि अरस२२३ सूइयं वा असूइयं । सूपितं (प्यं) वा असूपितम् (प्यम्)। या विरस,२२४ व्यंजन सहित या व्यंजन उल्लं वा जइ वा सुक्कं आर्द्र वा यदि वा शुष्क, रहित,२२५ आई२२६ या शुष्क,२२७ मन्थु-कुम्मास-भोयणं ॥ मन्थु-कुल्माष-भोजनम् ॥ ६ ॥ मन्थु २२८ और कुल्माष२२६ का जो भोजन विधिपूर्वक प्राप्त हो उसकी निन्दा न करे । 86-उप्पण्णं नाइहोलेज्जा उत्पन्नं नातिहीलयेत्, निर्दोष आहार अल्प या अरस होते हुए भी अप्पं पि बहु फासुयं । अल्पमपि बहु प्रासुकम् । बहुत या सरस होता है २३० । इसलिए उस मुहालद्धं मुहाजीवी मुधालब्धं मुधाजीवी, मुधालब्ध३१ और दोष-वर्जित आहार को समभाव से खा ले २३२ । भुंजेज्जा दोसवज्जियं ॥ भुञ्जीत दोषवजितम् ॥ ६६ ॥ ०-दुल्लहा उ मुहादाई दुर्लभास्तु मुधादायिनः, १०० - मुधादायी२33 दुर्लभ है और मुहाजीवी वि दुल्लहा। मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः । मुधाजीवी भी दुर्लभ है। मुधादायी और महादाई मुधाजीवी दोनों सुगति को प्राप्त होते हैं। मुहाजीवी भुधादायिनो मुधाजीविनः, ऐसा मैं कहता हूँ। दो वि गच्छंति सोग्गइं॥ द्वावपि गच्छतः सुगतिम् ॥१००॥ ॥ति बेमि ॥ इति ब्रवीमि। पिण्डषणायां प्रथमः उद्दश: समाप्तः। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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