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________________ पिंडेसणा (पिण्डषणा) १६३ ६१-न सम्ममालोइयं होज्जा पुदिव पच्छा व जं कडं। पुणो पडिक्कमे तस्स वोसट्टो चितए इमं ॥ न सम्यगालोचितं भवेत् पूर्व पश्चाद्वा यत्कृतम्। पुनः प्रतिक्रामेत्तस्य, व्युत्सृष्टश्चिन्तयेदिदम् ॥११॥ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ६१-६७ ___६१-सम्यक् प्रकार से आलोचना न हुई हो अथवा पहले-पीछे की हो (आलोचना का क्रम-भंग हुआ हो ) उसका फिर प्रतिक्रमण करे, शरीर को स्थिर बना यह चिन्तन करे ६२-अहो२०९ जिणेहिं असावज्जा वित्ती साहण देसिया। मोक्खसाहणहेउस्स साहुदेहस्स धारणा ॥ अहो ! जिनः असावद्या, वृत्तिः साधुभ्यो देशिता। मोक्षसाधनहेतोः, साधुदेहस्य धारणाय ॥१२॥ ६२-कितना आश्चर्य है-भगवान् ने साधुओं के मोक्ष-साधना के हेतु-भूत संयमी-शरीर की धारणा के लिए निरवद्यवृत्ति का उपदेश किया है। १३-नमोक्कारेण पारेत्ता नमस्कारेण पारयित्वा, करेता जिणसंथवं । कृत्वा जिनसंस्तवम् । सज्झायं पट्टवेत्ताणं स्वाध्यायं प्रस्थाप्य, वीसमेज्ज खणं मुणी ॥ विश्राम्येत् क्षणं मुनिः ॥१३॥ ६३-इस चिन्तनमय कायोत्सर्ग को नमस्कार मन्त्र के द्वारा पूर्ण कर जिनसंस्तव (तीर्थङ्कर-स्तुति) करे, फिर स्वाध्याय की प्रस्थापना (प्रारम्भ) करे, फिर क्षण-भर विश्राम ले२१ । १४-वीसमंतो इमं चिते विश्राम्यन् इमं चिन्तयेत्, हियमट्ठ लाभमट्ठिओ११ ।। हितमर्थ लाभार्थिकः, जइ मे अणुग्गहं कुज्जा यदि मेऽनुग्रहं कुर्यः, साह होज्जामि तारिओ॥ साधवो भवामि तारितः ॥१४॥ ६४–विश्राम करता हुआ लाभार्थी (मोक्षार्थी) मुनि इस हितकर अर्थ का चिन्तन करे–यदि आचार्य और साधु मुझ पर अनुग्रह करें तो मैं निहाल हो जाऊँ---मानूं कि उन्होंने मुझे भवसागर से तार दिया । १५-साहवो तो चियत्तेणं निमंतेज्ज जहक्कम । जइ तत्थ केइ इच्छेज्जा तेहिं सद्धि तु भुजए॥ साधुस्तंतः 'चियत्तेण', निमन्त्रयेद् यथाक्रमम् । यदि तत्र केचित् इच्छेयुः, तैः सार्धं तु भुञ्जीत ॥६५॥ १५-वह प्रेमपूर्वक साधुओं को यथाक्रम निमन्त्रण दे । उन निमन्त्रित साधुओं में से यदि कोई साधु भोजन करना चाहे तो उनके साथ भोजन करे। ६६-अह कोइ न इच्छेज्जा तओ भुजेज्ज एक्कओ। आलोए भायणे साहू जयं अपरिसाड्यं१३ ॥ अथ कोपि नेच्छेत्, ततः भुजीत एककः । आलोके भाजने साधुः, यतमपरिशाटयन् ॥६६॥ १६–यदि कोई साधु न चाहे तो अकेला ही खुले पात्र में २१२ यतना पूर्वक नीचे नहीं डालता हुआ भोजन करे। ६७-तित्तगं व कडुयं व कसायं अंबिलं व महुरं लवणं वा।। एय लद्धमन्न-पउत्तं महुघयं व भुंजेज्ज संजए॥ तिक्तकं वा कटुकं वा कषायं, अम्लं वा मधुरं लवणं वा। एतल्लब्धमन्यार्थप्रयुक्तं, मधुघतमिव भुञ्जीत संयतः ॥१७॥ ९७-गृहस्थ के लिए बना हुआ २१४तीता (तिक्त) २१५ या कडुवा,२१६ कसैला२१७ या खट्टा२१८, मीठा२१६ या नमकीन२२० जो भी आहार उपलब्ध हो उसे संयमी मुनि मधुघृत की भांति खाए। Jain Education Intemational ducation Intermational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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