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दसवेआलियं ( दशवकालिक) ८४-तत्थ से भंजमाणस्स
अट्टियं कंटओ सिया । तण-कटू-सक्करं वा वि अन्नं वा वि तहाविहं ॥
तत्र तस्य भुजानस्य, अस्थिक कण्टकः स्यात् । तृण-काष्ठ-शर्करा वाऽपि, अन्यद्वाऽपि तथाविधम् ॥४॥
अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ८४-६०
८४-८६-वहां भोजन करते हुए मनि के आहार में गुठली, काँटा,२०५ तिनका, काठ का टुकड़ा, कंकड़ या इसी प्रकार की कोई दूसरी वस्तु निकले तो उसे उठाकर न फेंके, मुंह से न थूके, किन्तु हाथ में लेकर एकान्त चला जाए । एकान्त में जा अचित्त भूमि को देख, यतना-पूर्वक उसे परिस्थापित करे। परिस्थापित करने के पश्चात् स्थान में आकर प्रतिक्रमण करे ।
८५-तं उक्खिवित्तु न निक्खिवे
आसएण न छड्डुए। हत्थेण तं गहेऊणं एगंतमवक्कमे
तद् उक्षिप्य न निक्षिपेत्, आस्यकेन न छर्दयेत् । हस्तेन तद् गृहीत्वा, एकान्तमवक्रामेत् ॥८॥
८६-एगंतमवक्कमित्ता
अचित्तं पडिलेहिया । जयं परिट्ठवेज्जा परिटुप्प
एकान्तमवक्रम्य, अचित्तं प्रतिलेख्य। यतं परिस्था(ष्ठा)पयेत्, परिस्था(ष्ठा)प्य प्रतिक्रामेत् ॥८६॥
८७-२०६सिया य भिक्खू इच्छेज्जा
सेज्जमागम भोत्तयं । सपिंडपायमागम्म उंडुयं पडिलेहिया ॥
स्याच्च भिक्षुरिच्छेत्, शय्यामागम्य भोक्तुम् । सपिण्डपातमागम्य, 'उडुयं' प्रतिलेख्य ॥७॥
८७-८८-कदाचित्२०७ भिक्षु शय्या (उपाश्रय) में आकर भोजन करना चाहे तो भिक्षा सहित वहाँ आकर स्थान की प्रतिलेखना करे। उसके पश्चात् विनयपूर्वक२०८ उपाश्रय में प्रवेश कर गुरु के समीप उपस्थित हो, 'इर्यापथिकी' सूत्र को पढ़कर प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) करे।
८८-विणएण पविसित्ता।
सगासे गुरुणो मुणी इरियावहियमायाय आगओ य पडिक्कमे ॥
विनयेन प्रविश्य, सकाशे गुरोर्मुनिः। ऐपिथिकोमादाय, आगतश्च प्रतिक्रामेत् ॥८॥
नीसेसं जहक्कम ।
८९-आभोएताण
अइयारं गमणागमणे भत्तपाणे
आभोग्य निश्शेषम्, अतिचारं यथाक्रमम् । गमनागमने चैव, भक्त-पाने च संयतः ॥८६॥
चेव
८६-६०-आने-जाने में और भक्त-पान लेने में लगे समस्त अतिचारों को यथाक्रम याद कर ऋजु-प्रज्ञ, अनुद्विग्न संयति व्याक्षेपरहित चित्त से गुरु के समीप आलोचना करे । जिस प्रकार से भिक्षा ली हो उसी प्रकार से गुरु को कहे।
व
संजए॥
६०-उज्जुप्पन्नो अणुग्विग्गो ऋजुप्रज्ञः अनुद्विग्नः,
अव्वविखत्तेण चेयसा।। अव्याक्षिप्तेन चेतसा। आलोए गुरुसगासे आलोचयेत् गुरुसकाशे, जं जहा गहियं भवे ॥ यद् यथा गृहीतं भवेत् ॥६॥
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