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________________ पिंडेसणा ( पिण्डवणा ) ७७- अजीवं परिणयं पडिगाहेज अह संकियं आसाइत्ताण ७८ घोवमासायणट्टाए हत्थगम्मि दलाहि मे । मा मे प्रच्चंबिलं पूइं नालं तहं वित्तिए । ८१ एतमवक्कमिता अचित्तं जयं परिटुप्प ७६- तं च अच्चंबिलं पूइं नालं तहं विणित्तए । देतियं पडियाइक्ले न मे कम्पइ तारिसं ॥ नच्चा संजए । ८० - तं च होज्ज अकामेणं विमणेण पच्छियं । तं अप्पणा न पिबे नो वि अन्नस्स दावए || ८३- अणुन्नवे भवेज्जा रोयए ॥ पच्छिन्नम्मि हत्य तत्थ २सिया य गोवरगगओ इच्छेज्जा परिभोत्तुयं । कोद्रुगं भित्तिमूलं वा पडिलेहिताण फासूयं ॥ Jain Education International पडिलेहिया । परिवेज्जा पक्किमे ॥ महावी संबुडे । संपमज्जित्ता भुजेज्ज संजए ॥ EX अभी परिणतं ज्ञात्वा प्रतिगृह्णीयात् संयतः । अथ शंकितं भवेत्, आस्वाद्य रोचयेत् ॥७७ स्तोमास्वादनार्थ हस्तके देहि मे । मा मे अत्यम्लं पूति, नालं तृष्णां विनेतुम् ॥ ७८ ॥ तच्चाऽत्यम्लं पूति, ना तृष्णां विनेतुम् । ददर्ती प्रत्याची न मे कल्पते तादृशम् ॥७६॥ तच्च भवेदकामेन, मनसा प्रतीप्सितम । तद् आत्मना न पिबेत्, नो अपि अन्यस्मै दापयेत् ॥८०॥ एकान्तमवक्रम्य, अचित्तं प्रतिलेख्य । यतं परिस्थापयेत् परिया (ष्ठाय प्रतिफामेत् ॥८१॥ स्याच्च गोचरागतः, इच्छेत् परिभोक्तुम् । कोष्ठ भित्तिमूलं वा, प्रतिलेख्य प्रासुकम् ॥८२॥ अनुज्ञाप्य मेघावी प्रति हस्तकं संप्रय तत्र भुञ्जीत संयतः ॥८३॥ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक ७७ ८३ रहित और परिणत जानकर संयमी मुनि ले ले यह मेरे लिए उपयोगी होगा या नहीं ऐसा सन्देह हो तो उसे चखकर लेने का निश्चय करे । संवृते । For Private & Personal Use Only दाता से कहेने के लिए थोड़ा-सा जल मेरे हाथ में दो । बहुत १६५ सट्टा, दुर्गन्धयुक्त और प्यास बुझाने में असमर्थ जल लेकर मैं क्या करूँगा ?, ७८ -260 ७६ यदि वह जल बहुत खट्टा, दुर्गन्धयुक्त और प्यास बुझाने में असमर्थ हो तो देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे इस प्रकार का जल मैं नहीं ले सकता । ८०-८१ - यदि वह पानी अनिच्छा या असावधानी से लिया गया हो तो उसे न स्वयं पीए और न दूसरे साधुओं को दे 1 परन्तु एकान्त में जा अत्ति भूमि को देख यतापूर्वक उसे परिस्थापित करे। परिस्थापित करने के पश्चात् स्थान में आकर प्रतिक्रमण करे १६६ | ८२-८३ – गोचरान के लिए गया हुआ मुनि कदाचित् आहार करना चाहे तो प्रामुक कोष्ठक या भित्ति को देख कर उसके स्वामी की अनुज्ञा लेकर २०२ छाये हुए एवं .२०१ संवृत स्थल में का प्रमार्जन कर करे । बैठे, हस्तक से२०४ शरीर मेधावी संयति वहाँ भोजन www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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