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दसवेआलियं (दशवकालिक)
४५८ अध्ययन ६ : (तृ० उ०) श्लोक ८-१० टि० १५-२०
श्लोक
१५. जो शूर व्यक्तियों में अग्रणी ( परमग्गसूरे ग ) :
स्थानाङ्ग सूत्र (४.३६७) में चार प्रकार के शूर बतलाए हैं : (१) युद्ध-शूर, (२) तपस्या-शूर, (३) दान-शूर और (४) धर्म-शूर ।
इन सब में धर्म-शूर (धार्मिक श्रद्धा से कष्टों को सहन करने वाला) परमान-शूर होता है । अग्र का एक अर्थ लक्ष्य भी है। परम (मोक्ष) के लक्ष्य में जो शूर होता है, वह 'परमाग्र-शूर' कहलाता है।
श्लोक:
१६. विरोधी ( पडिणीयं ) :
प्रत्यनीक अर्थात् विरोधी, अपमानजनक या आपत्तिजनक ।
१७. निश्चयकारिणी ( ओहारिणि ग):
देखिए ७.५४ का टिप्पण, संख्या ८३ ।
श्लोक १०:
१८. जो रसलोलुप नहीं होता ( अलोलुए क):
इसका अर्थ है-'आहार आदि में लुब्ध न होने वाला', स्वदेह में अप्रतिबद्ध रहने वाला। १६. ( अक्कुहए ):
देखिए १०.२० का 'कुहक' शब्द का टिप्पण ।
२०. चुगली नहीं करता ( अपिसुणे ख ) :
अपिशुन अर्थात् मिले हुए मनों को न फाड़ने वाला, 'तुगली न करने वाला।
१- (क) जि० चू० पृ० ३२१ : परमग्गसूरे णाम जुद्धसूर-तवसूर दाणसूरादीणं सूराणं सो धम्मसद्धाए सहमाणो परमग्गसूरो भवइ,
सव्व सूराणं पाहण्णयाए उबरि वट्टइत्ति वुत्तं भवति । (ख) हा० टी० प० २५४ : 'परमानशूरो' दानसंग्रामशूरापेक्षया प्रधानः शूरः । २-A Sanskrit-English Dictionary, P. 6. ३-हा० टी०प० २५४ : 'प्रत्यनीकाम्' अपकारिणी चौरस्त्वमित्यादिरूपाम् । ४-(क) अ० चू० आहारदेहादिसु अपडिबी अलोलुए।
(ख) जि० चू०प० ३२१ : उक्कोसेसु आहारादिसु अलुद्धो भवइ, अहवा जो अप्पणोवि देहे अप्पडिबद्धो सो अलोलुओ भण्णइ ।
(ग) हा० टी० प० २५४ : 'अलोलुप' आहारादिष्वलुब्धः । ५-(क) अ० चू० : अभेदकारए।
(ख) जि० चू० पृ० ३२२ : 'अपिसुणे' णाम नो मनोपोतिभेदकारए। (ग) हा० दो० ५० २५४ ; 'अपिशुनश्चापि' नो छेदभेदकर्ता।
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