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________________ विणयसमाही (विनय-समाधि) ४५७ अध्ययन ६ (तृ०उ०) : श्लोक ५-७ टि० १०-१४ श्लोक ५ः १०. जो अल्पेच्छ होता है ( अप्पिच्छया ख ) : अल्पेच्छता का तात्पर्य है-प्राप्त होने वाले पदार्थों में मूर्छा न करना और आवश्यकता से अधिक न लेना' । श्लोक ६: ११. श्लोक ६: पुरुष धन आदि की आशा से लोहमय कांटों को सहन कर लेता है-यहाँ सूत्रकार ने एक प्राचीन परम्परा का उल्लेख किया है। धूर्णिकार उसे इस भाषा में प्रस्तुत करते हैं कई व्यक्ति तीर्थ-स्थान में धन की आशा से भाले की नोक या बबूल आदि के कांटों पर बैठ या सो जाते थे। उधर जाने वाले व्यक्ति उनकी दयनीय दशा से द्रवित हो कहते "उठो, उठो, जो तुम चाहोगे वही तुम्हें देंगे।" इतना कहने पर वे उठ खड़े होते। १२. कानों में पैठते हुए ( कण्णसरे ५ ) : अगस्त्यसिंह स्थविर ने इसके दो अर्थ किए हैं—'कानों में प्रवेश करने वाले अथवा कानों के लिए वाण जैसे तीखे,। जिनदास और टीकाकार ने इसका केवल एक (प्रथम) अर्थ ही किया है। श्लोक ७: १३. सहजतया निकाले जा सकते हैं ( सुउद्धरा ख ): जो बिना कष्ट के निकाला जा सके और मरहमपट्टी कर व्रण को ठीक किया जा सके-यह 'सुउद्धर' को तात्पर्यार्थ है। १४. वैर की परम्परा को बढ़ाने वाले ( वेराणुबंधीणि घ): अनुबन्ध का अर्थ सातत्य, निरन्तरता है। कटु वाणी से वर आगे से आगे बढ़ता जाता है, इसलिए उसे वैरानुबन्धी कहा है। १-जि० चू० पृ० ३२० : अप्पिच्छया णाम णो मुच्छं करेइ, ण वा अत्तिरित्ताण गिण्हइ । (ख) हा० टी० प० २५३ : 'अल्पेच्छता' अमूर्च्छया परिभोगोऽतिरिक्ताग्रहणं वा। २--(क) अ० चू० : सक्कणीया सक्का सहितुं मरिसेतूं, लाभो आसा, ताए कंटगा बब्बूलपभीतीणं जधा केति तित्थादित्थाणेसु लोभेण अवस्स मम्हे धम्ममुद्दिस्स कोति उत्थावेहितित्ति कंटकसयणं । (ख) जि० चू० पृ० ३२० : जहा कोयि लोहमयकंटया पत्थरेऊण सयमेव उच्छहमाणा ण पराभियोगेण तेसि लोहकंटगाणं उर्वार णुविज्जति, ते य अण्णे पासित्ता किवापरिगयचेतसा अहो वरागा एते अत्थहेउं इमं आवई पत्तत्ति भन्नंति जहा उठेह उठेहति, जं मग्गह तं भे पयच्छामो, तओ तिक्खकंटाणिभिन्नसरीरा उठेति । ३-अ० चू० : कण्णं सरंति पावंति कण्णसरा अधवा सरीरस्स दुस्सहमायुधं सरो तहा ते कण्णस्स एवं कण्णसरा। ४- (क) जि० चू० पृ ३१६ : कन्नं सरंतीति कन्नसरा, कन्नं पविसंतीति बुत्तं भवइ । (ख) हा० टी० प० २५३ : 'कर्णसरान्' कर्णगामिनः । ५-(क) जि० चू० पृ० ३२० : सुहं च उद्धरिज्जंति, बणपरिकम्मणादीहि य उवाएहि रुज्झविज्जंति । (ख) हा० टी०प० २५३ : 'सूद्धराः' सुखेनवोज्रियन्ते व्रणपरिकर्म च क्रियते । ६-हा० टी०प० २५३ : तथाश्रवणप्रद्वेषादिनेह परत्र च बैरानुबन्धीनि भवन्ति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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