SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 507
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) ७. अपना परिचय न देते हुए उञ्छ ( भिक्षा ) की ( अन्नायउञ्छं 'अज्ञात और 'उच्छ' को व्याख्याएं भिन्न-भिन्न स्थलों में इस प्रकार की हैं जो मित्र स्वजन आदि न हो वह 'अज्ञात' कहलाता है' । पूर्व-संस्तव मातृ-पितृपक्षीय परिचय और पश्चात् संस्तव - ससुरपक्षीय परिचय के बिना प्राप्त भैक्ष्य 'अज्ञात उंछ' कहलाता है । उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से रहित जो भैक्ष्य उपलब्ध हो वह 'अज्ञात उच्छ' है । 'अज्ञात - उञ्छ' की ८.२३ में भी यही व्याख्या है । उक्त व्याख्याओं के आधार पर 'अज्ञात उञ्छ' के फलितार्थं दो हैं : ४५६ अध्ययन ( तृ० उ० ) श्लोक ४ टि०७-६ १. अज्ञात घर का उञ्छ । २. अज्ञात - अपना परिचय दिए बिना प्राप्त उच्छ । क जिनदास महत्तर के अनुसार भी 'अज्ञात उञ्छ' के ये दोनों अर्थ फलित होते हैं। टीकाकार 'अज्ञात' को केवल मुनि का ही विशेषण मानते हैं । शीलाङ्काचार्य ने 'अज्ञातपिण्ड' का अर्थ अन्त प्रान्त और पूर्वापर अपरिचितों का पिण्ड किया है। उत्तराध्ययन की वृत्ति में 'अज्ञातैषी' का अर्थ अपने विशेष गुणों का परिचय न देकर गवेषणा करने वाला किया है। प्रश्नव्याकरण में शुद्ध उच्छ की गवेषणा के प्रकरण में 'अज्ञात' शब्द भिक्षु के विशेषण रूप में प्रयुक्त हुआ हैं । यहाँ 'अज्ञात' मुनि का विशेषण है । इसका अर्थ यह है कि मुनि अपना परिचय दिए बिना शुद्ध उच्छ की गवेषणा करे । अनुसन्धान के लिए देखिए कि ८.२३ । ) ८. खिन्न...... होता ( परिदेवएज्जा ग ) : भिक्षा न मिलने पर खिन्न होना- "मैं मन्दभाग्य हूँ, यह देश अच्छा नहीं है" - इस प्रकार विलाप या खेद करना" । ६. श्लाघा ...करता ( विकत्थयई ख ) : भिक्षा मिलने पर " मैं भाग्यशाली हूँ या यह देश अच्छा है" - इस प्रकार श्लाघा करना" । १० (क) जि० पू० पृ० ३१२ (च) हा० डी० प० २५३ १- अ० चू० १.३.४ अन्नातं जं न मित्तरायणादि । २- अ० चू० चूलिका २.५ तमेव समुदाणं पुरुवपच्छा संथवादीहिं ण उप्पादियमिति ३-२००] १०.१६ 'उममुपावशेवणामुड अन्नायमप्रातेव समुपयादितं ४० पू० भा अन्नातमेषणा सुद्धपपातियं' । Jain Education International ५- जि० चू० पृ० ३१६ : भावु ́छं अन्नायेण, तमन्नायं उछं चरति । ६-- हा० टी० प० २५३ : 'अज्ञातोञ्छं' परिचयाकरणेनाज्ञातः सन् भावोञ्छं गृहस्थोद्धरितादि । ७-०] १.०.२७० विज्ञातपिण्डः अन्तप्रान्त इत्यर्थ: अज्ञातेभ्यो वा पूर्वापरा संस्तुतेभ्यो वा पिण्डोडि ८ - उत्त० १५. बृ० वृ० : अज्ञातः तपस्वितादिभिर्गुणैरनवगत एषयते ग्रासादिकं गवेषयतीत्येवंशीलोऽज्ञातैषी । ६- प्रश्न० संवरद्वार १.४: चउत्थं आहारएषणाए सुद्धं उञ्छं गवेसियन्वं अण्णाए अगढिए अनुट्ठे अदोणे" परिवेइज्जा, जहा मंदभागो न सभारंभ, अहो पंतो एस जो एवमादि। परिदेवयेत् सेयं बापात् यथा मन्दभाग्योमोनो वाज्य देश इति । तत्वका गाम सलाद्या भण्यति, जह अहो एसो सुम्महिषणामो जनो, जहा या अहंभाव को अन्नातउंछ । अमाउ ं ११ (क) जि० पू० पृ० ३१९ अन्नो एवं लभिहिति । (ख) हा० टी० १० २५३ 'विकल्प' साघां करोतिस शोभनो वाऽयं देश इति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy