________________
विजयसमाही (विनय-समाधि )
४. दीक्षा काल में उयेष्ट (परीयायजेठा )
ख
ज्येष्ठ या स्थविर तीन प्रकार के होते हैं ।
५. जो
(१) जातिपर जो जन्म से ज्येष्ठ होते हैं।
ज्ञान से होते हैं।
(२) तस्वरि (३) पर्याय
जो दीक्षा-काल से ज्येष्ठ होते है।
यहाँ इन तीनों में से पर्याय ज्येष्ठ' की विशेषता बतलाई गई है? । जो जाति और श्रुत से ज्येष्ठ न होने पर भी पर्याय से ज्येष्ठ हो उसके प्रति विनय का प्रयोग करना चाहिए।
गुरु के समीप रहने वाला है ( ओवायवं
)
आगम-टीकाओं में 'वाय' के संस्कृत रूप 'उपपात और अवपात' दोनों दिये जाते हैं। उपपात का अर्थ है- समीप व आज्ञा और अवपात का अर्थ है ---वन्दन, सेवा आदि । अगस्त्य वृद्धि में 'ओवायव' का अर्थ 'आचार्य का आज्ञाकारी' किया है। जिनदास वर्णि में भी 'ओवाय' का अर्थ आज्ञा-निर्देश किया है। टीकाकार ने 'ओवायव' के दो अर्थ किए हैं—बन्दनशील या समीपवर्ती' । 'अव ' को 'ओ' होता है परन्तु 'उप' को प्राकृत व्याकरण में 'ओ' नहीं होता । आर्य प्रयोगों में 'उप' को 'ओ' किया जाता है, जैसे – उपवास == ओवास (पउमचरिय ४२ ८१ ।
४५५
अध्ययन १ ( तु० उ० ) श्लोक ४ टि०४-६
वन्दनशील के अतिरिक्त समीपवर्ती या आज्ञाकारी' अर्थ 'उपपात' शब्द को ध्यान में रखकर ही किए गए हैं। 'ओवायव' से अगला शब्द 'बक्ककर' है । इसका अर्थ है- गुरु की आज्ञा का पालन करने वाला। इसलिए 'ओवायवं' का अर्थ 'वन्दनशील' और 'समीपवर्ती' अधिक उपयुक्त है । जिनदास महत्तर ने 'आशायुक्त वचन करने वाला' - इस प्रकार संयुक्त अर्थ किया है । परन्तु 'ओवायवं' शब्द स्वतन्त्र है, इसलिए उसका अर्थ स्वतंत्र किया जाए यह अधिक संगत है ।
श्लोक ४ :
६. जीवन-यापन के लिए ( जट्टया)
संयम भार को वहन करने वाले शरीर को धारण करने के लिए - यह अगस्त्य सिंह स्थविर और टीकाकार की व्याख्या है । जिनदास महत्तर इसी व्याख्या को कुछ और स्पष्ट करते हैं, जैसे-- यात्रा के लिए गाड़ी के पहिए में तेल चुपड़ा जाता है वैसे ही संयम-यात्रा को निभाने के लिए भोजन करना चाहिए ।
२- अ० चू० : आयरिअ आणाकारी ओवायवं ।
३ जि०
१० चू० पृ० ३१९
P
१- अ० चू० : जातिसुतथेरभूमीहिंतो परियागथेरेभूमिमुक्करिस्संतहि विसेसिज्जति डहरावि जो वयसा परियायजेट्ठा पव्वज्जामहेल्ला ।
Jain Education International
उवातो नाम आणानिद्देसो ।
'अवपातवान्' वन्दनशीलो निकटवर्ती वा ।
'वाक्यकरो' निर्देशकः ।
४- हा० टी० प० २५३
५० टी० १० २५३
६- (क) अ० ० : संजयभाम्यह सरीरधारणत्वं यट्ठता ।
(ख) हा० टी०प०२५३ 'वापनार्थ संयमभरोद्वाहिशरीरपालनाय नायया ।
७- वि० ० पृ० ३१६ 'जयगट्ठया' नाम जहा सटरस अभंगो जतत्वं कीरह, लहा संजमजत्ता निव्वणत्वं आहारयति ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org