SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ टिप्पण : अध्ययन ह ( तृतीय उद्देशक ) श्लोक १ : १. अभिप्राय की आराधना करता है ( छन्दमारायइप): छन्द का अर्थ है इच्छा । विनीत शिष्य केवल गुरु का कहा हुआ काम ही नहीं, जिनके निरीक्षण औरत को समझ कर स्वयं समयोचित कार्य कर लेता है । शीतकाल की तु है । आचार्य ने वस्त्र की ओर देवः । दिप्य सभा गया । आचार्य को ठंड लग रही है, वस्त्र की आवश्यकता है । उसने बस्व लिया और आचार्य को दे दिया यह मिलोमतको समान कार छन्द की आराधना का प्रकार है। आचार्य के कफ का प्रकोप हो रहा है। औपत्र की अपेक्षा है। उन्होंने कुछ भी नहीं पता फिर भी थिय उनका इङ्गित-मन का भाव बताने वाली अङ्ग-चेष्टा देखकर संठ ला देता है । यह इङ्गित के द्वारा छन्द की आराधना का प्रकार है । आलोकित और इङ्गित से जैसे अभिप्राय जाना जाता है. वैसे और और साधनों से भी जाना जा सकता है। कहा भी है : इगिताकारितैश्चैव, क्रियाभि रितेन च । नेवा विकाराभ्यां, गृहातेन्तर्गतं मनः ।। अ०यू०॥ इङ्गित, आकार, क्रिया, भाषण, नेत्र और मुंह का विकार -इनके द्वारा आन्त रक चेप्टाएँ जानी जाती हैं। श्लोक २: २. आचार के लिए ( आयारमट्ठा क ) : ज्ञान, दर्शन, तप, चारित्र और वीर्य-ये पांच आचार अहलाते हैं । विनय इन्हीं को प्राक्षि लिए करना चाहिए। यह परमार्थ का उपदेश है। ऐहिक या पारलौकिक पूजा, प्रतिष्ठा आदि के लिए विनय करना परमार्थ नहीं है। श्लोक ३ : ३. अल्पवयस्क (डहरा ख ): ____ 'डहर' और 'दहर' एक ही शब्द हैं । वेदान्तसूत्र में 'दहर' का प्रयोग हुआ है। उसका अर्थ ब्रह्म है ( इसके लिए १.३.१४ से १.३.२३ तक का प्रकरण द्रष्टव्य है)। छान्दोग्य उपनिषद् में भी 'दहर' शब्द प्रयुक्त हुआ है। शाङ्करभाष्य के अनुसार उसका अर्थ अल्प..... लघु है । १-हा० टी० प० २५२ : यथा शोते पतति प्रावरणावलोकने कानयने । २-हा० टी प० २५२ : इङ्गिते वा निष्ठीवनादिलक्षणे शुठ्याद्यानयनेन । ३-जि० चू० पृ० ३१८ : पंचविधस्स णाणाइआयारस्स अट्ठाए साधु आयारियस विषय पवेज्जा। ४-छान्दो० ८.१.१ : यदिदमस्मिन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीक वेश्म दहरोऽ स्मन्नन्तराकाशस्तस्मिन् यदन्तस्तदन्वेष्टव्यं तद्वाव विजिज्ञासितव्यमिति । ५-वही, शा० भाष्य : दहरमल्पं पुण्डरीक पुण्डरीकसदृशं वेश्भेव वेश्म द्वारपालादिमत्त्वात् । 'दहर' अर्थात् छोटा-सा कमल-सदृश गृह है-द्वारपालादि से युक्त होने के कारण जो गृह के समान गृह है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy