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________________ ४५३ अध्ययन ६ : श्लोक १२-१५ विणयसमाही ( विनयसमाधि ) १२-तहेव डहरं व महल्लग वा इत्थीपुमं पव्वइयं गिहिवा। नो होलए नो वि य खिसएज्जा थंभं च कोहं च चए सपुज्जो ॥ तथैव डहरं च 'महान्तं' वा, प्रिय पुमांसं अजितं गृहिणं वा । को होलयेन्दो अपि च खिसयेत्, स्तम्भञ्च कोधञ्च त्यजेत् स पूज्य: ॥१२॥ १२---बालक या हद्ध, स्त्री या पुरुष, प्रद्रजित या गृहस्थ को दुश्चरित की याद दिलाकर जो लज्जित नहीं करता, उनकी निन्दा नहीं करता२५, जो गर्व और क्रोध का त्याग करता है, वह पूज्य है। १३- जे माणिया सययं माणयंति जत्तेण कन्नं व निवेसलि। ते माणए माणरिहे तवस्सी जिइंदिए सच्चरएस पुज्जो॥ ये नानिताः सततं मानपन्ति, यत्नेन कन्या म निवेशयन्ति । तान्मानयेन्मानास्तिपस्विनः, जितेन्द्रियान् सत्यरतान् स पूज्य: ॥१३॥ १६-- अभ्युत्थान आदि के द्वारा सम्मानित किए जाने पर जो शिष्यों को सतत सम्मानित करते हैं...श्रत ग्रहण के लिए प्रेरित करते हैं, पिता उसे अपनी कन्या को यत्नपूर्वक योग्य कुल में स्थापित करता है, वैसे ही जो आचार्य अपने शिष्यों को योग्य मार्ग में स्थापित करते हैं, उन माननीय, तपस्वी, जितेन्द्रिय और सत्यरत आचार्य का जो सम्मान करता है, वह पूज्य है । १४-तेसि गुरूणं गुणसागराणं तेषो गुरूणां गुणसागराणां, सोच्चाण मेहावि सुभासियाई। श्रुत्वा मेवावी सुभाषितानि । चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो। चरेन्मुनिः पञ्तरचस्त्रिगुप्तः, चउकसायावगए स पुज्जो॥ अपगत-चतुष्कषायः स पूज्यः ॥१४॥ १४-जो मेधावी मुनि उन गुण-सागर गुरओं के सुभाषित सुनकर उनका आचरण करता है, पाँच महाव्रतों में रत, मन, वाणी और शरीर से गुप्त तथा क्रोध, मान, माया और लोभ को दूर करता है, वह पूज्य है। १५-गुरुमिह सययं पडियरिय मुणी जिणमयनिउणे अभिगमकसले। धुणिय रयमलं पुरेकर्ड भासुरमउलं गई गय॥ गुरुमिह सततं प्रतिवर्य निः, जिनमतनिषु णोऽभिगमदुशलः । धूत्वा रजोमलं पुरा कृत, भास्वरामतुलां गतिं गतः ॥१५॥ १५---इस लोक में गुरु की सतत सेवा कर", जिनमत-निपुण (आगम-निपुण) और अभिगम (विनय-प्रतिपत्ति) में कुशल३२ मुनि पहले किए हुए रज और मल को33 कम्पित कर प्रकाशयुक्त अनुपम गति को प्राप्त होता है। ऐसा मैं कहता हूँ। त्ति बेमि। इति ब्रवीमि । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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