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अध्ययन ६ (तृ०उ०) : श्लोक ६-११
दसवेआलियं ( दशवकालिक )
४५२ ६. ....१"सक्का सहउँ आसाए कंटया शक्या: सोढुमाशया कण्टकाः,
अओमया उच्छहया नरेणं । अयोमया उत्सहमानेन नरेण । अणासए जो उ सहेज्ज कंटए
अनाशया यस्तु सहेत कण्टकान्, वईमए कण्णसरे स पुज्जो ॥
वाङ्मयान् कर्णशरान् स पूज्य ॥६॥
६-पुरुष धन आदि की आशा से लोहमय कांटों को सहन कर सकता है परन्तु जो किसी प्रकार की आशा रखे बिना कानों में पैठते हए१२ वचनरूपी कांटों को सहन करता है, वह पूज्य है।
७-मुहत्तदुक्खा हु हवंति कंटया
अओमया ते वि तओ सुउद्धरा। वायादुरुत्ताणि दुरुद्ध राणि वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥
मुहूर्त दुःखास्तु भवन्ति कण्टकाः, अयोमयास्तेऽपि तत: सूद्धराः । वाग्-दुरुक्तानि दुरुद्वराणि, वैरानुबन्धीनि महाभयानि ॥७॥
७-लोहमय कांटे अल्पकाल तक दु:खदायी होते हैं और वे भी शरीर से सहजतया निकाले जा सकते हैं किन्तु दुर्वचनरूपी कांटे सहजतया नहीं निकाले जा सकने वाले. वैर की परम्परा को बढ़ाने वाले १४ और महाभयानक होते हैं।
८-समावयंता वयणाभिधाया समापतन्तो वचनाभिघाता:,
कण्णंगया दुम्मणियं जणंति । कर्णगता दौर्मनस्यं जनयन्ति । धम्मो ति किच्चा परमग्गसरे धर्मति कृत्वा परमानशूरः, जिईदिए जो सहई स प्रज्जो जितेन्द्रियो य: सहते स पूज्यः ॥८॥
८-सामने से आते हुए वचन के प्रहार कानों तक पहुंचकर दौर्मनस्य उत्पन्न करते हैं । जो शुर व्यक्तियों में अग्रणी५, जितेन्द्रिय पुरुष 'यह मेरा धर्म है'- ऐसा मानकर उन्हें सहन करता है, वह पूज्य है।
&-अवण्णवायं च परम्मुहस्स अवर्णवादञ्च पराङ्मुखस्य, पच्चक्खओ पडिणीयच भासं। प्रत्यक्षत: प्रत्यनीकाञ्च भाषाम् । ओहारिणि अप्पियकारिणि च अबधारिणीमप्रियकारिणीञ्च,
भाषां न भाषेत सदा स पूज्य: ॥६। भासं न भासेज्ज सया स पुज्जो ।।
E-जो पीछे से अवर्णवाद नहीं बोलता, जो सामने विरोधी वचन नहीं कहता, जो निश्चयकारिणी और अप्रियकारिणी भाषा नहीं बोलता, वह पूज्य है ।
१०-अलोलुए अक्कुहऐ६ अमाई
अलोलुप: अकुहक: अमायी, अपितुणे यावि अदीणवित्ती। अपिशुनश्चापि अदीनवृत्तिः । नो भावए नो वि य भावियप्पा नो भावयेत् नो अपि च भावितात्मा अकोउहल्ले य सया स पुज्जो॥ अकौतूहलश्च सदा स पूज्य: ॥१०॥
१०—जो रसलोलुप नहीं होता, इन्द्रजाल आदि के चमत्कार प्रदर्शित नहीं करता, माया नहीं करता, हुगली नहीं करता दीनभाव से याचना नहीं करता, दूसरों से आत्मश्लाघा नहीं करवाता२२, स्वय भीआत्मश्लाघा नहीं करता और जो कुतुहल नहीं करता, वह पूज्य है।
११-गुणेहि साहू अगुणाहऽसाहू गुणः साधुरगुगैरसाधुः,
गिण्हाहि साहूगुण मुचऽसाहू । गृहाण साधुगुणान् मञ्चाऽसाधून् । वियाणिया अप्पगमप्पएणं विज्ञाय आत्मकमात्मकेन, जो रागदोसेहिं समो स पुज्जो॥ यो राग-द्वषयो: सम: स पूज्य: ॥११॥
११- गुणों से साधु होता है और अगुणों से असाधु। इसलिए साधु-गुणोंसाधूता को ग्रहण कर और असाधू-गणोंअसाधुता को छोड़२४ | आत्मा को आत्मा से जानकर जो राग और द्वेष में सम (मध्यस्थ) रहता है, वह पूज्य है।
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