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________________ नवमं अज्झयणं : नवम अध्ययन विणयसमाही (तइओ उद्देसो) : विनय-समाधि (तृतीय उद्देश क) संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १--आयरियं अग्गिमिवाहियग्गी आचार्यमग्निमिवाहिताग्निः, सुस्सूसमाणो पडिजागरेज्जा। शुश्रूषमाणः प्रतिजागृयात् । आलोइयं इंगियमेव नच्चा आलोकितं इङ्गितमेव ज्ञात्वा, जो छन्दमाराहयइ स पुज्जो ॥ यश्छन्दमाराधयति स पूज्यः ॥११॥ १-जैसे आहिताग्नि अग्नि की शुश्रूषा करता हुआ जागरूक रहता है, वैसे ही जो आचार्य की शुश्रुषा करता हुआ जागरूक रहता है, जो आचार्य के आलोकित और इङ्गित को जानकर उनके अभिप्राय की आराधना करता है', वह पूज्य है। २-आयारमा विणयं पउंज आचारार्थ विनयं प्रयुजीत, सस्सूसमाणो परिगिज्झ वक्कं । शुश्रूषमाणः परिगृह्य वाक्यम् । जहोवइट्ट अभिकंखमाणो यथोपदिष्टमभिकाङ्क्षन्, गुरु तु नासाययई स पुज्जो ॥ गुरु तु नाशातयति स पूज्य: ॥२॥ २-जो आचार के लिए विनय का प्रयोग करता है, जो आचार्य को सुनने की इच्छा रखता हुआ उनके वाक्य को ग्रहण कर उपदेश के अनुकूल आचरण करता है, जो गुरु की आशातना नहीं करता, वह पूज्य है। ३-राइणिएसु विणयं पउजे रात्निकेषु विनयं प्रयुजीत, डहरा वि य जे परियायजेट्रा । डहरा अपि ये पर्यायज्येष्ठाः । नियत्तणे वट्टइ सच्चवाई नीचत्वे वर्तते सत्यवादी, ओवावयं वक्ककरेस पुज्जो ॥ अवपातवान् वाक्यकर: स पूज्यः ।।३।। ३-जो अल्पवयस्क होने पर भी दीक्षा-काल में ज्येष्ठ हैं-उन पूजनीय साधुओं के प्रति विनय का प्रयोग करता है, नम्र व्यवहार करता है, सत्यवादी है, गुरु के समीप रहने वाला है। और जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है, वह पूज्य है। ४-- अन्नायउंछं चरई विसुद्ध। अज्ञातोच्छं चरति विशुद्ध, जवणट्ठया समुयाणं च निच्चं। यापनार्थ समुदानं च नित्यम् । अलद्ध यं नो परिदेवएज्जा अलब्ध्वा न परिदेवयेत्, लवुन विकत्थयई स पुज्जो ॥ लब्ध्वा न विकत्यते स पूज्यः ॥४॥ ४—जो जीवन-यापन के लिए विशुद्ध सामुदायिक अज्ञात-उञ्छ (भिक्षा) की सदा चर्या करता है, जो भिक्षा न मिलने पर खिन्न नहीं होता, मिलने पर श्लाघा नहीं करता, वह पूज्य है। ५–संथारसेज्जासणभत्तपाणे संस्तार-शय्यासन-भक्तपाने, अप्पिच्छया अइलाभे वि संते । अल्पेच्छताऽतिलाभेपि सति । जो एवमप्पाणभितोसएज्जा य एवमात्मानमभितोषयेत्, संतोसपाहन्नरए स पुज्जो ॥ सन्तोषप्राधान्यरत: स पूज्य: ॥५॥ ५---संस्तारक, शय्या, आसन, भक्त और पानी का अधिक लाभ होने पर भी जो अल्पेच्छ होता है, अपने-आप को सन्तुष्ट रखता है और जो संतोष-प्रधान जीवन में रत है, वह पूज्य है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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