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________________ विणसमाही (विनय-समाधि ) *** २१. दीन-भाव से याचना नहीं करता ( अदीणवित्ती क ) : अनिष्ट की प्राप्ति और इष्ट की अप्राप्ति होने पर जो दीन न हो, जो दीन-भाव से याचना न करे, उसे अदीन-वृत्ति कहा जाता है । अध्ययन ( तृ० उ० ) श्लोक ११ टि० २१-२४ 8 : २२. दूसरों से आत्म- श्लाघा · करवाता ( भावए ग ) : 'भाव' धातु का अर्थ है-वासित करना, चिंतन करना, पर्यालोचन करना । 'नो भावए तो वि य भावियप्पा' - इसका शाब्दिक अर्थ है-न दूसरों को अकुशल भावना से भावित - - वासित करे और न स्वयं अकुशल भावना से भावित हो । 'जो दूसरों से आत्म - श्लाघा नहीं करवाता और जो स्वयं भी आत्म- श्लाघा नहीं करता' - यह इसका उदाहरणात्मक भावानुवाद है' । 'भावितात्मा' मुनि का एक विशेषण भी है। जिसकी आत्मा धर्म-भावना से भावित होती है, उसे 'भावितात्मा' कहा जाता है । यहाँ भावित का अभिप्राय दूसरा है । प्रकारान्तर से इस चरण का अर्थ - 'नो भापयेद् नो अपि च भावितात्मा न दूसरों को डराए और न स्वयं दूसरों से डरे भी किया जा सकता है । --- २३. जो कुतुहल नहीं करता ( अकोउहल्ले ): कुतूहल का अर्थ है - उत्सुकता, किसी वस्तु या व्यक्ति को देखने की उत्कट इच्छा, क्रीड़ा । जो उत्सुकता नहीं रखता. क्रीड़ा नहीं करता अथवा नट-नर्तक आदि के करतबों को देखने की इच्छा नहीं करता, वह अकुतूहल होता है । श्लोक ११ : २४- असाधुओं के गुण को छोड़ ( साहू) : यहाँ 'असाहू' शब्द के अकार का लोप किया गया है। अगस्यसिह स्थविर ने यहाँ समान की दीर्घता न कर कितंत ( कृतान्त - कृत अन्तो न ) की तरह 'पररूप' ही रखा है । जिनदास महत्तर ने ग्रन्थ-लाघव के लिए आकार का लोप किया है - ऐसा माना है । टीकाकार ने 'प्राशैली' के अनुसार 'अकार' का होप माना है। यहाँ गुण शब्द का अध्याहार होता है मुंचासाधुगुणा अर्थात् असाधु के गुणों को छोड़" । १ – ( अ० चू० : आहारोव हिमादीस विरूवेसु लब्भमाणेसु अलब्भमाणेसु ण दीणं वत्तए अदोषवित्ती । (ख) जि० ० चू० पृ० ३२२ : अदीणवित्तो नाम आहारोव हिमाइसु अलब्भमाणेसु णो दीण मावं गच्छइ, तेसु लद्धे सुवि अदी - भायो भवति । २– (क) अ० ० : घरत्थेण अण्णतित्थियेण वा मए लोगमम्भे गुणमत्तं भावेज्जासित्ति एवं णो भावये देतेसि वा कंचि अप्पणा जो भावये । अहमेवं गुण इति अप्पणा विण भावितप्पा | (ख) जि० चू० पृ० ३२२ । (ग) हा० टी० प० २५४ । ३ - (क) जि० चू० पृ० ३२२ : तहा नडनट्टगादिसु णो कूउहलं करेइ । (ख) हा० टी० प० २५४ : अकौतुकश्च सदा नटनर्तकादिषु । ४- अ० चू० : एत्थ ण समाणदीर्घता किंतु पररूवं करांतवदिति । Jain Education International ५- जि० ० चू० पृ० ३२२ : गंथलाघवत्थमकारलोवं काऊण एवं पढिज्जइ जहा मुंचऽसाधुत्ति । ६- हा० टी० प० २५४ । ७ - अ० चू० : मुचासाधुगुणा इति वयणसेसो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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