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पिडेसणा ( पिण्डषणा )
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अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक २४ टि०६८-१०२
६८. उत्फुल्ल दृष्टि से न देखे ( उप्फुल्लं न विणिज्झाए " ):
विकसित नेत्रों से न देखे - औत्सुक्यपूर्ण नेत्रों से न देखे ।
स्त्री, रत्न, घर के सामान आदि को इस प्रकार उत्सुकतापूर्वक देखने से गृहस्थ के मन में मुनि के प्रति लघुता का भाव उत्पन्न हो सकता है । वे यह सोच सकते हैं कि मुनि वासना में फंसा हुआ है । लाघव दोष को दूर करने के लिए यह निषेध है। 88. बिना कुछ कहे वापस चला जाये ( नियटेज्ज अयंपिरो घ ):
घर में प्रवेश करने पर यदि गृहस्थ प्रतिषेध करे तो मुनि घर से बाहर चला आये । इस प्रकार भिक्षा न मिलने पर वह बिना कुछ कहे – निदात्मक दीन वचन अथवा कर्कश बचन का प्रयोग न करते हुए -- मौन भाव से वहाँ से चला आये --यह जिनदास और हरिभद्र सूरि का अर्थ है । अगस्त्यसिंह स्थविर ने -भिक्षा मिलने पर या न मिलने पर ----इतना विशेष अर्थ किया है। _ 'शीलाद्यर्थस्येर:'3 इस सूत्र से 'इर' प्रत्यय हुआ है । संस्कृत में इसके स्थान पर 'शीलाद्यर्थे तृन' होता है । हरिभद्र सूरि ने इसका संस्कृत रूप 'अजल्पन्' किया है।
श्लोक २४: १००. श्लोक २४
आहार के लिए गृह में प्रवेश करने के बाद साधु कहाँ तक जाये इसका नियम इस श्लोक में है। १०१. अतिभूमि (अननुज्ञात) में न जाये ( अइभूमि न गच्छेज्जा क ) :
गृहपति के द्वारा अननुज्ञात या वजित भूमि को 'अतिभूमि' कहते है । जहाँ तक दूसरे भिक्षाचर जाते हैं वहाँ तक की भूमि अतिभूमि नहीं होती । मुनि इस सीमा का अतिक्रमण कर आगे न जाये । १०२. कुल-भूमि (कुल-मर्यादा) को जानकर ( कुलस्स भूमि जाणित्ता ) :
जहाँ तक जाने में गृहस्थ को अप्रीति न हो, जहाँ तक अन्य भिक्षाचर जाते हों उस भूमि को कुल-भूमि कहते हैं५ । इसका निर्णय ऐश्वर्य, देशाचार, भद्रक-प्रान्तक आदि गृहस्थों की अपेक्षा से करना चाहिए।
१- (क) अ० चू० पृ० १०६ : उप्फुल्लं ण विणिज्झाए, उप्फुल्लं उधुराए विट्ठीए, 'फुल्ल विकसणे' इति हास विगसंततारिगं ण
विणिज्झाए ण विविधं पेक्खेज्जा, दिट्ठीए विनियट्टणमिदं । (ख) जि० चू० पृ० १७६ : उप्फुलं नाम विगसिएहि णयणेहि इत्थीसरीरं रयणादी वा ण निज्झाइयव्वं । (ग) हा० टी० ५० १६८ : 'उत्फुल्ल' विकसितलोचनं 'न विणिज्झाए' ति न निरीक्षेत गृहपरिच्छदमपि, अदृष्टकल्याण इति
लाधवोत्पत्तेः। २-(क) अ० चू० १० १०६ : वाताए वि 'णियट्टेज्ज अयंपुरो' दिण्णे परियंदणेण अदिण्णे रोसवयहि ....... "एवमादीहि अज
पणसीलो 'अयंपुरो' एवंविधो णियट्टे ज्जा। (ख) जि० चू० पृ० १७६ : जदा य पडिसेहिओ भवति तदा अयंपिरेण णियत्तियव्वं, अज्झखमागेणति वुत्तं भवति ।
(ग) हा० टी० ५० १६८ : तथा निवर्तेत गृहादलब्धेऽपि सति अजल्पन् –दीनवचनमनुच्चारयन्निति । ३-हैम० ८.२.१४५ । ४ - (क) अ० चू० पृ० १०६ : भिक्खयरभूमिअतिक्कमणमतिभूमी तं ण गच्छेज्जा।
(ख) जि० चू० पृ० १७६ : अणणुण्णाता भूमी . . . . . . . . . . 'साहू न पविसेज्जा।
(ग) हा० टी० ५० १६८ :अतिभूमि न गच्छेद् – अननुज्ञातां गृहस्थैः, यत्रान्ये भिक्षाचरा न यान्तीत्यर्थः । ५-(क) अ० चू० पृ० १०६ : किं पुण भूमिपरिमाणं? इति भण्णति तं विभव-देसा-आयार-भद्दग-पतंगादीहि 'कुलस्स भूमि
णाऊण' पुवपरिक्कमणेणं अण्णे वा भिक्खयरा जावतियं भूमिमुपसरंति एवं विग्णातं । (ख) जि० चू० पृ० १७६ : केवइयाए पुण पविसियन्वं ?,.......... 'जत्थ तेसि गिहत्याणं अप्पत्तियं न भवइ, जत्थ अण्णेवि
भिक्खायरा ठायंति।
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