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________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) लाख का गोला अग्नि पर चढ़ाने से पिघल जाता है और उससे अति दूर रहने पर वह रूप नहीं पा सकता। इसी प्रकार गृहस्थ के घर से दूर रहने पर मुनि को भिक्षा प्राप्त नहीं हो सकती, एपणा की भी शुद्धि नहीं हो पाती और अत्यन्त निकट चले जाने पर अप्रीति या सन्देह उत्पन्न हो सकता है। अतः यह कुल की भूमि ( भिक्षा लेने की भूमि) को पहले जान ले" । १०३. मित-भूमि (अनुज्ञात) में प्रवेश करे ( मियं भूमि परक्कमे घ ) : गृहस्थ के द्वारा अनुज्ञात-अवर्जित भूमि को मित-भूमि कहते हैं । यह नियम अप्रीति और अविश्वास उत्पन्न न हो इस दृष्टि से हैं। इलोक २५ १०४. श्लोक २५ मित-भूमि में जाकर साधु कहाँ और कैसे खड़ा रहे इसकी विधि प्रस्तुत श्लोक में है । २२२ अध्ययन ५ १०५. विचक्षण मुनि (वियक्खणो ख ) : विचक्षण का अर्थ गीतार्थ या शास्त्र - विधि का जानकार है। अगीतार्थ के लिए भिक्षाटन का निषेध है। भिक्षा उसे लानी चाहिए जो शास्त्रीय विधिनिषेधों और लोक व्यवहारों को जाने, संयम में दोष न आने दे और शासन का लाघव न होने दे | १०६. मित-भूमि में हो ( तत्थेव क ) : मितभूमि में भी न हो इस बात का उपयोग लगाये कि वहाँ कहाँ खड़ा हो और कहाँ न बड़ा हो वह उचित स्थान को देखे । साधु मित-भूमि में कहाँ खड़ा न हो इसका स्पष्टीकरण इस श्लोक के उत्तरार्द्ध में आया है। १०७. शौच का स्थान ( वच्चस्स ): जहाँ मल और मूत्र का उत्सर्ग किया जाए वे दोनों स्थान 'वर्चस्' कहलाते हैं । १ (क) अ० चू० पृ० ८ गोले त्ति गहणेसणाए अतिभूमीगमणणिरोहत्थं भष्णति जतुगोलमणया कातव्वा, जतुगोलतो अग्गिनारोचितो विधिरति दूरस्यो असंत तो एवं निम्बति साहू विदूरत्वो सोहेति यति भवति कि या सहा कुल भूमि न लभति एवं वान (ख) हा० टी० प० १६ : जह जउगोलो अगणिस्स, सक्कइ काऊन तहा, दूरे असणाऽयं सचाइ, लम्हा भयभूमीए मतं भूमि मि भूमि ( प्र० उ०) श्लोक २५ टि०१०३-१०७ २ (क) अ० ० ० १०६ (ख) जि० चू० पृ० १७७ जत्थ इमाई न दोसंति । Jain Education International गाइदूरे ण आवि आसन्ने । संजमगोलो गिहत्याणं || इयम्मि तेणसंकाइ । चिट्ठिज्जा गोयरग्गओ || २ (क) अ० ० पृ० १०६ (ख) हा० टी० १० १६० (ग) जि० चू० पृ० १७७: मियं नाम अणुन्नायं परक्कमे नाम पविसेज्जा । ३ हा० टी० १० १६५ वयमप्रतिनजायत इति सूत्रार्थः । में बुद्धीए संपेहितं सच्चदोसमुद्र तायतियं पविसेज्जा । रात पराक्रमेत् । ४ – (क) अ० चू० पृ० १०६ : 'वियक्खणों' पराभिप्पायजाणतो, कहि चियत्तं ण वा ? विसेसेण पवयणोवघातरक्खणत्थं । (ख) हा० डी० [१०] १६५ विवक्षणों' विहान अनेन केवल गीतार्थस्यानप्रतिषेधमाह । 1 समेति ताए मिलाए भूमीए एक्लो अबधारणे किमवधारयति ? पृथ्बुदि कुलपुरुवं । तत्तियाए मियाए भूमीए उवयोगो कायश्वो पंडिएण, कत्थ ठातियव्वं कत्थ न वत्ति, तत्थ ठातियव्वं (ग) हा० डी० प० १६० ''तस्यामेव मिता भूमी ६ - ( क ) अ० चू० पृ० १०६ : 'वच्च' अमेज्भं तं जत्थ । पंचप ( ? पसु-पं) डगादिसमीवथाणादिसु त एव दोसा इति । (ख) जि० चू० पृ० १७७ : वच्चं नाम जत्थ वोसिरति कातिकाइसन्नाओ । (ग) हा० टी० प० १६८ : 'वर्चसो' विष्टायाः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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