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पिंडेसणा ( पिण्डेपणा )
१०८. दिखाई पड़े उस भूमि-भाग का ( संलोगं घ ) :
'संलोक' शब्द का सम्बन्ध स्नान और वर्चस् दोनों से है । 'लोक' संदर्शन अर्थात् जहाँ खड़ा होने से मुनि को स्नान करती हुई या मल विसर्जन करती हुई स्त्री दिखाई दे अथवा वही साधु को देख सके' ।
स्नान गृह और शौच-गृह की ओर दृष्टि डालने से शासन की लघुता होती है अविश्वास होता है और नग्न शरीर के अवलोकन से काम-वासना उभरती है । यहाँ आत्म-दोष और पर दोष – ये दो प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं। स्त्रियां सोचती हैं हम मातृवर्ग जहाँ स्नान करती हैं उस ओर यह काम विह्वल होकर ही देख रहा है। यह पर सम्बन्धी दोष है। अनावृत स्त्रियों को देखकर मुनि के चरित्र का भंग होता है । यह आत्म-सम्बन्धी दोष है। ये ही दोष वर्चस्-दर्शन के हैं । मुनि इन दोषों को ध्यान में रख इस नियम का पालन करे । श्लोक २६ :
१०६. इलोक २६
भिक्षा के लिए मिल-भूमि में प्रविष्ट सा कहां खड़ा न हो, इसका कुछ और उल्लेख इस लोक में है।
११०. सर्वेन्दिय समाहित मुनि ( सव्विदियसमाहिए ) :
जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों से आक्षिप्त - आकृष्ट न हो, उसे सर्वेन्द्रिय-समाहित कहा जाता है अथवा जिसकी सब इन्द्रियाँ समाहित हों अंतर्मुखी हों, वाह्य विषयों से विरत होकर आत्मलीन बन गई हों, उसे समाहित सर्वेन्द्रिय कहा जाता है जो मुनि सर्वेन्द्रिय समाधि से संपन्न होता है, वही अहिंसा का सूक्ष्म विवेक कर सकता है ।
१११. मिट्टी ( मट्टिय क ) :
अटवी से लाई गई सचित्त सजीव मिट्टी ।
२२३ अध्ययन ५ ( प्र० उ०) श्लोक २६ टि० १०५-११२ :
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११२. लाने के मार्ग ( आयाणं *)
):
आदान अर्थात् ग्रहण। जिस मार्ग से उदक, मिट्टी आदि ग्रहण की जाती लाई जाती हो वह मार्ग । हरिभद्र ने 'आदान' को उदक और मिट्टी के साथ ही सम्बन्धित रखा है सम्बन्ध जोड़ा है" ।
१ (क) अ० चू० पृ० १०६ : 'लोगो' जत्थ एताणि आलोइज्जंति तं परिवज्जए । (ख) जि० चू० पृ० १७७ : आसिणाणस्ससंलोयं परिवज्जए, सिणाणसंलोगं वच्चसंलोगं व ते वा तं पासंति ।
जबकि जिनदास ने हरियाली आदि के साथ भी उसका
(ग) हा० टी० ५० १६० स्वानभूमिका पिकाविभूमिदर्शनम् ।
२- हा० टी० प० १६८
प्रवचनलाघवप्रसङ्गात्, अप्रावृतस्त्रीदर्शनाच्च रागादिभावात् ।
३ - जि० चू० पृ० १५७ तत्थ आयपरसमुत्था दोसा भवंति, जहा जत्थ अम्हे पहाओ जत्थ य मातिवग्गो अहं व्हायइ तमेसो परिभवमाणो कामेमाणो वा एत्थ ठाइ, एवमाई परसमुत्था दोसा भवंति, आयसमुत्था तस्सेव व्हायंतिओ अवाउडियाओ अविरतियाओ चरितमेवादी बोसा भयंति वयं नाम जत्व वोसिरति कालिकाइसन्नाओ, तस्सवि संलोगं वज्जेय आय परसमुत्यादोसा पणविरहणाय भवति ।
४ (क) अ० ० ० १०७
:
(ख) जि० पू० पृ० १७७ (ग) हा० टी० प० १६८
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५- (क) अ० चू० पृ० १०७ : 'मट्टिया' सच्चित्त पुढविक्कायो सो जत्थ अधुणा आणीयो ।
(ख) जि०० पृ० १७० मट्टिया अडीओ सविता आणीया ।
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६ - अ० चू० पृ० १०७ : जत्थ जेण वा थाणेण उदगमट्टियाओ गेव्हंति तं दगमट्टियाणं ।
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सविधिसमाहित सरह दिएहि एएस परिहरणे सम्म आहित समाति। सचिदिपसमाहितो नाम तो स्वाहि अस्ति। सर्वेन्द्रियसमाहितः शब्दादिभिरनाक्षिप्तचित्त इति ।
"संलोगं जत्थठिएण हि दीसंति,
(क) जि० ० पृ० १७७ आदाणं नाम महणं, जेण ममेयंतूण वगमट्टियरियाचीणि घेण्यंति तं दयमट्टियआवा भगद । (ख) हा० डी० १० १६० आदीयतेऽनेनेत्यादानोमार्ग, उदकमृत्तिकाननमार्गमित्यर्थः ।
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