________________
दसवेआलियं ( दशवकालिक )
२२४ अध्ययन ५ (प्र०उ०) : श्लोक २७ टि० ११३-११५
११३. हरियाली ( हरियाणि ख ):
यहाँ हरित शब्द से समस्त प्रकार के वृक्ष, गुच्छादि, घासादि वनस्पति-विशेष का ग्रहण समझना चाहिए ।
श्लोक २७ : ११४. श्लोक २७ :
अब तक के इलोकों में आहारार्थी मनि स्व-स्थान से निकलकर गृहस्थ के घर में प्रवेश करे, वहाँ कैसे स्थित हो, इस विधि का उल्लेख है । अब वह क्या ग्रहण करे और क्या ग्रहण नहीं करे, इसका विवेचन आता है।
जो कालादि गुणों से शुद्ध है, जो अनिष्ट कुलों का वर्जन करता है, जो प्रीतिकारी कुलों में प्रवेश करता है, जो उपदिष्ट स्थानों में स्थित होता है और जो आत्मदोषों का वर्जन करता है उस मुनि को अब दायक-शुद्धि की बात बताई जा रही है। ११५. ( अकप्पियं ग..कप्पियंघ ) :
शास्त्र-विहित, अनुमत या अनिषिद्ध को 'कल्पिक' या 'कल्प्य' और शास्त्र-निषिद्ध को 'अकल्पिक' या 'अकल्प्य' कहा जाता है।
'कल्प' का अर्थ है--नीति, आचार, मर्यादा, विधि या सामाचारी और 'कल्प्य' का अर्थ है --नीति आदि से युक्त ग्राह्य, करणीय और योग्य । इस अर्थ में 'कल्पिक' शब्द का भी प्रयोग होता है। उमास्वाति के शब्दों में जो कार्य ज्ञान, शील और तप का उपग्रह और दोषों का निग्रह करता है वही निश्चय-दृष्टि से 'कल्प्य' है और शेष 'अकल्प्य'५ । उनके अनुसार कोई भी कार्य एकान्तत: 'कल्प्य' और 'अकल्प्य' नहीं होता। जिस 'कल्प्य' कार्य से सम्यक्त्व, ज्ञान आदि का नाश और प्रवचन की निंदा होती हो तो वह 'अकल्प्य' भी 'कल्प्य' बन जाता है। निष्कर्ष की भाषा में देश, काल, पुरुष, अवस्था, उपयोग और परिणाम-विशुद्धि की समीक्षा करके ही 'कल्प्य' और 'अकल्प्य' का निर्णय किया जा सकता है, इन्हें छोड़कर नहीं।
आगम-साहित्य में जो उत्सर्ग और अपवाद हैं वे लगभग इसी आशय के द्योतक हैं। फिर भी 'कल्प्य' और 'अकल्प्य' की निश्चित रेखाएँ खिची हुई हैं। उनके लिए अपनी-अपनी इच्छा के अनुकूल 'कल्प्य' और 'अकल्प्य' की व्यवस्था देना उचित नहीं होता। बहुश्रुत आगम-धर के अभाव में आगमोक्त विधि-निषेधों का यथावत् अनुसरण ही ऋजु मार्ग है। मुनि को कल्पिक, एषणीय या भिक्षा-सम्बन्धी बयालीस दोष-वजित भिक्षा लेनी चाहिए। यह ग्रहणैषणा (भक्त-पान लेने की विधि) है।
१-जि० चू० पृ० १७७ : हरियग्गहणेणं सवे रक्खगुच्छाइणो वणप्फइविसेसा गहिया। २ (क) अ० चू० पृ० १०७ : एवं काले अपडिसिद्धकुलमियभूमिपदेसावत्थितस्स गवेषणाजुत्तस्स गहणेसणाणियमणत्थमुपदिस्सति ।
(ख) जि० चू० पृ० १७७ : एवं तस्स कालाइगुणसुद्धस्स अणिट्टकुलाणि वज्जेंतस्स चियत्तकुले पविसंतस्स जहोवदिव ठाणे ठियस्स
___ आयसमुत्था दोसा वज्जेतस्स दायगसुद्धी भण्णइ। ३-(क) अ० चू० पृ० १०७ : कल्पितं सेसेसणा दोसपरिसुद्धम्।
(ख) हा० टी० ५० १६८ । 'कल्पिकम् एषणीयम् । ४---(क) अ० चू० पृ० १०७ : बायालीसाए अण्णतरेण एसणादोसेण दुट्ठ।
(ख) हा० टी० ५० १६८ : 'अकल्पिकम्' अनैषणीयम् । ५-प्र० प्र०१४३ :
यज्ज्ञानशीलतपसामुपग्रहं निग्रहं च दोषाणाम् ।
कल्पयति निश्चये यत्तत्कल्प्यमकल्प्यमवशेषम् ।। ६- वही १४४-४६ :
यत्पुनरुपघातकरं सम्यक्त्वज्ञानशीलयोगानाम् । तत्कल्प्यमप्यकलप्यं प्रवचनकुत्साकरं यच्च । किंचिच्छुद्ध कल्प्यमकल्प्यं स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्डः शय्या वस्त्रं पात्रं वा भैषजाद्य वा ॥ देशं कालं क्षेत्र पुरुषमवस्थामुपयोगशुद्धपरिणामान् । प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं नैकान्तात्कल्प्यते कल्प्यम् ।।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org