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पिंडेसणा ( पिण्डेषणा )
११६. श्लोक २८ :
इस श्लोक में 'छर्दित' नामक एषणा के दसवें दोषयुक्त भिक्षा का निषेध हैं'। तुलना के लिए देखिए आवश्यक सूत्र ४.८ ।
११७. बेती हुई दंतिय
)
प्रायः स्त्रियाँ ही भिक्षा दिया करती हैं, इसलिए यहाँ दाता के रूप में स्त्री का निर्देश किया है ।
श्लोक २६
२२५ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक २८-३० टि० ११६-१२१
श्लोक २८ :
क
ख
११८. और य ):
अगस्त्य घूर्णि में 'य' के स्थान पर 'वा' है। उन्होंने 'वा' से सब वनस्पति का ग्रहण माना है ।
ग
११६. असंयमकरी होती है - यह जान ( असंजमकर मच्चा ):
मुनि की भिक्षाचर्या में अहिंसा का बड़ा सूक्ष्म विवेक रखा गया है । भिक्षा देते समय दाता आरम्भ रत नहीं होना चाहिए । असंयम का अर्थ संयममात्र का अभाव होता है, किन्तु प्रकरण-संगति से यहाँ उसका अर्थ जीव-वध ही संभव लगता है । भिक्षा देने के निमित्त आता हुआ दाता यदि हिंसा करता हुआ आए अथवा भिक्षा देने के लिए वह पहले से ही वनस्पति आदि के आरम्भ में लगा हुआ हो तो उसके हाथ से भिक्षा लेने का निषेध है ।
१२०. भक्त पान ( तारिसंघ ) :
दोनों 'पूर्णिकार 'वारिस' ऐसा पाठ मानते हैं। उनके अनुसार यह शब्द भक्त-पान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। टीकाकार तथा उनके उपजीवी व्याख्याकार 'तारिसिं' ऐसा पाठ मान उसे देने वाली स्त्री के साथ जोड़ते हैं । इसका अनुवाद होगा उसे वर्जे उसके हाथ से भिक्षा न ले ।
१.
श्लोक ३०
१२१. एक बर्तन में से दूसरे बर्तन में निकाल कर ( साह
):
भोजन को एक बर्तन से निकाल कर दूसरे बर्तन में डालकर दे तो चाहे वह प्रासुक ही क्यों न हो मुनि उसका परिवर्जन करे ।
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पि०नि० ६२७-२८ :
सच्चिते अस्चिते मीसग तह छड्डणे य चउभंगो । चभंगे पडलेही गहणे आणाइणो दोसा ।
उसिस्स देत व मेल कायदाही या
सोपा पडिए महविदुआहरणं ।
क
(क) अ० ० ० १०७ पाए हाति इस्वी
(ख) जि० चू० पृ० १७८ : पायसो इत्थियाओ भिक्खं दलयंति तेण इत्थियाए निद्देसो कओ
1
(ग) हा० ० ० १६९
वदतीम् स्त्र्येव प्रायो निक्षां ददातीति स्त्रीग्रहणम् ।
३ - अ० चू० पृ० १०७ वा सद्देण सव्ववणस्सतिकार्य ।
४ – (क) अ० चू० पू० १०७ : तारिसं पुन्वमधिकृतं पाणभोयणं परिवज्जए ।
(ख) जि० चू० पृ० १७८ तारिस भत्तपाणं तु परिवज्जए ।
५-हा० टी० प० : १६६ : तादृशीं परिवर्जयेत् ।
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