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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
२२६ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ३०-३१ टि० १२२ इस प्रकार के आहार की चौमङ्गी इस तरह है' :--
(१) प्रासुक बर्तन से आहार को प्रासुक बर्तन में निकाले । (२) प्रासुक बर्तन से आहार को अप्रासुक बर्तन में निकाले । (३) अप्रासुक बर्तन से आहार को प्रासुक बर्तन में निकाले ।
(४) अप्रासुक बर्तन से आहार को अप्रासुक बर्तन में निकाले । प्रासुक में से प्रासुक निकाले उसके भङ्ग इस प्रकार है :---
(१) अल्प को अल्प में से निकाले । (२) बहुत को अल्प में से निकाले । (३) अल्प को बहुत में से निकाले ।
(४) बहुत को बहुत में से निकाले ।
विशेष जानकारी के लिए देखिए --पिण्डनियुक्ति गा०५६३-६८ । १२२. श्लोक ३०-३१ :
आहार को पाक-पात्र से दूसरे पात्र में निकालना और उसमें जो अनुपयोगी अंश हो उसे बाहर फेंकना संहरण कहलाता है। संहरण-पूर्वक जो भिक्षा दी जाए उसे 'संहृत' नाम का दोष माना गया है । सचित्त-वस्तु पर रखे हुए पात्र में भिक्षा निकाल कर देना, छोटे पात्र में न समाए उतना निकाल कर देना, बड़े पात्र में जो बड़े कट से उठाया जा सके उतना निकाल कर देना, संहृत' दोष है। जो देय-भाग हो, उसे सचित्त-वस्तु पर रख कर देना निक्षिप्त' दोष है । उदक का प्रेरण, अवगाहन और चालन सचित्त-स्पर्श के भीतर समाए हए हैं । फिर भी इनका विशेष प्रसंग होने के कारण विशेष उल्लेख किया गया है। सचित वस्नु का अवगाहन कर या उसे हिलाकर भिक्षा दी जाए, यह एषणा का 'दायक' नामक छट्ठा दोष है।
१- (क) अ० चू० पृ० १०७ : साहटु अण्णम्मि भायणे छोणं । एत्थ य फासुयं अफासुए साहरति चउभंगो। तत्थ जं फासुयं
फासुए साहरति तं सुक्खं सुक्खे साहरति एत्थ वि चउभंगो । भंगाण पिडनिज्जुत्तीए विसेसत्थो । (ख) जि० चू० पृ० १७८ : साहटु नाम अन्नंमि भायणे साहरिउ देति तं फासुगंपि विवज्जए, तत्व फासुए फासुयं साहरइ १
फासुए अफासुयं साहरइ २ अफासुए फासुयं साहरइ ३ अफासुए अफासुयं साहरति ४, तत्थ जं फासुयं फासुएस साहरति
तं येवं थेवे साहरति बहुए थेवं साहरइ थेवे बहुयं साहरइ बहुए बहुयं साहरइ, एतेसि भंगाणं जहा पिंडनिज्जुत्तीए। २-पि० नि० ५६५-७१ :
मतेण जेण दाहिइ तत्थ अदिज्जं तु होज्ज असणाई। छोटु तयन्नहिं तेणं देई अह होइ साहरणं ।। भूमाइएस तं पुण साहरणं होइ छसुवि काए । जं तं दुहा अचित्तं साहरणं तत्थ चउभंगो।। सुक्के सुक्कं पढमो सुक्के उल्लं तु बिइयओ भंगो। उल्ले सुक्कं तइओ उल्ले उल्लं चउत्थो उ॥ एक्केक्के चउभंगो सुक्काईएस चउसु भगेसु । थोवे थोवं थोवे बहुं च विवरीय दो अन्ने ॥ जत्थ उ थोवे थोवं सुक्के उल्लं च छुहद तं भन्भ( गेज्ज्ञ)। जइ तं तु समुक्खेउं थोवामारं दलइ अन्नं ।। उक्खेवे निक्खिवे महल्लभाणंमि लुद्ध वह डाहो । अचियत्त वोच्छेओ छक्कायवहो य गुरुमत्त । थोवे थोवं छूढं सुक्के उल्लं तु तं तु आइन्न ।
बहुयं तु अणाइन्नं कडदोसो सोत्ति काऊ । ३ देखिए ‘संघट्टिया' का टिप्पण (५. १. ६१) संख्या १६३
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